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| <poem> | | <poem> |
− | ::(1)
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| उठ उठ री लघु लोल लहर! | | उठ उठ री लघु लोल लहर! |
| करुणा की नव अंगड़ाई-सी, | | करुणा की नव अंगड़ाई-सी, |
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| आ चूम पुलिन के बिरस अधर! | | आ चूम पुलिन के बिरस अधर! |
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− | ::(2)
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− | निज अलकों के अन्धकार मे तुम कैसे छिप आओगे?
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− | इतना सजग कुतूहल! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे!
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− | आह, चूम लूँ जिन चरणों को चाँप-चाँपकर उन्हें नहीं
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− | दुख दो इतना, अरे अरुणिमा ऊषा-सी वह उधर बही।
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− | वसुधा चरण-चिह्न-सी बनकर यहीं पड़ी रह जावेगी ।
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− | प्राची रज कुंकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी ।
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− | देख मैं लूँ, इतनी ही तो है इच्छा? लो सिर झुका हुआ।
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− | कोमल किरन-उँगलियो से ढँक दोगे यह दृग खुला हुआ ।
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− | फिर कह दोगे;पहचानो तो मैं हूँ कौन बताओ तो ।
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− | किन्तु उन्हीं अधरों से, पहले उनकी हँसी दबाओ तो।
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− | सिहर रेत निज शिथिल मृदुल अंचल को अधरों से पकड़ो ।
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− | बेला बीत चली हैं चंचल बाहु-लता से आ जकड़ो।
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− | तुम हो कौन और मैं क्या हूँ?
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− | इसमें क्या है धरा, सुनो,
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− | मानस जलधि रहे चिर चुम्बित
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− | मेरे क्षितिज! उदार बनो।
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− | ::(3)
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− | मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
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− | मुरझाकर गिर रही पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
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− | इस गम्भीर अनन्त नीलिमा मे असंख्य जीवन-इतिहास
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− | यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास।
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− | तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती
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− | तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।
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− | किन्तु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करनेवाले
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− | अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरनेवाले।
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− | यह बिडम्बना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।
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− | भूले अपनी, या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं ।
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− | उज्जवल गाथा कैसे गाऊँ मधुर चाँदनी रातों की।
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− | अरे खिलखिलाकर हँसते होनेवाली उन बातों की ।
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− | मिला कहाँ वह सुख जिसका स्वप्न देखकर जाग गया?
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− | आलिंगन मे आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया ?
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− | जिसके अरुण कपोलों की मतवाली सुन्दर छाया में।
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− | अनुरागिनि उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
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− | उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक का पन्था की।
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− | सीवन को उधेड़कर देखोगे क्यों मेरी कन्था की?
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− | छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ ?
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− | क्या यह अच्छा नहीं कि औरों को सुनता मै मौन रहूँ?
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− | सुनकर क्या तुम भला करोगे-मेरी भोली आत्म कथा?
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− | अभी समय भी नहीं-थकी सोई हैं मेरी मौन व्यथा।
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− | ::(4)
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− | ले चल वहाँ भुलावा देकर,
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− | मेरे नाविक! धीरे धीरे।
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− | जिस निर्जन में सागर लहरी।
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− | अम्बर के कानों में गहरी
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− | निश्चल प्रेम-कथा कहती हो,
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− | तज कोलाहल की अवनी रे।
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− | जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
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− | ढोले अपनी कोमल काया,
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− | नील नयन से ढुलकाती हो
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− | ताराओं की पाँत घनी रे ।
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− | जिस गम्भीर मधुर छाया में
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− | विश्व चित्र-पट चल माया में
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− | विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,
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− | दुख सुख वाली सत्य बनी रे।
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− | श्रम विश्राम क्षितिज वेला से
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− | जहाँ सृजन करते मेला से
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− | अमर जागरण उषा नयन से
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− | बिखराती हो ज्योति घनी से!
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− | ::(5)
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− | हे सागर संगम अरुण नील!
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− | अतलान्त महा गंभीर जलधि
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− | तज कर अपनी यह नियत अवधि,
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− | लहरों के भीषण हासों में
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− | आकर खारे उच्छ्वासों में
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− | युग युग की मधुर कामना के
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− | बन्धन को देता ढील।
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− | हे सागर संगम अरुण नील।
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− | पिंगल किरनों-सी मधु-लेखा,
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− | हिमशैल बालिका को तूने कब देखा!
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− | कवरल संगीत सुनाती,
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− | किस अतीत युग की गाथा गाती आती।
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− | आगमन अनन्त मिलन बनकर
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− | बिखराता फेनिल तरल खील।
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− | हे सागर संगम अरुण नील!
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− | आकुल अकूल बनने आती,
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− | अब तक तो है वह आती,
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− | देवलोक की अमृत कथा की माया
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− | छोड़ हरित कानन की आलस छाया
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− | विश्राम माँगती अपना।
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− | जिसका देखा था सपना
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− | निस्सीम व्योम तल नील अंक में
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− | अरुण ज्योति की झील बनेगी कब सलील?
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− | हे सागर संगम अरुण नील!
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− | ::(6)
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− | उस दिन जब जीवन के पथ में,
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− | छिन्न पात्र ले कम्पित कर में,
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− | मधु-भिक्षा की रटन अधर में,
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− | इस अनजाने निकट नगर में,
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− | आ पहुँचा था एक अकिंचन।
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− | लोगों की आखें ललचाईं,
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− | स्वयं माँगने को कुछ आईं,
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− | मधु सरिता उफनी अकुलाईं,
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− | देने को अपना संचित धन।
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− | फूलों ने पंखुरियाँ खोलीं,
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− | आँखें करने लगी ठिठोली;
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− | हृदय ने न सम्हाली झोली,
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− | लुटने लगे विकल पागल मन।
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− | छिन्न पात्र में था भर आता
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− | वह रस बरबस था न समाता;
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− | स्वयं चकित-सा समझ न पाता
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− | कहाँ छिपा था, ऐसा मधुवन!
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− | मधु-मंगल की वर्षा होती,
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− | काँटों ने भी पहना मोती,
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− | जिसे बटोर रही थी रोती
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− | आशा, समझ मिला अपना धन।
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− | ::(7)
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− | बीती विभावरी जाग री!
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− | अम्बर पनघट में डूबो रही
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− | तारा-घट उषा नागरी।
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− | खग-कुल कुल कुल-सा बोल रहा,
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− | किसलय का अंचल डोल रहा,
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− | लो यह लतिका भी भर लाई
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− | मधु मुकुल नवल रस गागरी।
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− | अधरों में राग अमन्द पिये,
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− | अलकों में मलयज बन्द किये
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− | तू अब तक सोई है आली।
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− | आँखों मे भरे विहाग री!
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− | ::(8)
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− | तुम्हारी आँखों का बचपन!
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− | खेलता था जब अल्हड़ खेल,
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− | अजिर के उर में भरा कुलेल,
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− | हारता था हँस-हँस कर मन,
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− | आह रे, व्यतीत जीवन!
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− | साथ ले सहचर सरस वसन्त,
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− | चंक्रमण करता मधुर दिगन्त,
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− | गूँजता किलकारी निस्वन,
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− | पुलक उठता तब मलय-पवन।
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− | स्निग्ध संकेतों में सुकुमार,
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− | बिछल,चल थक जाता जब हार,
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− | छिड़कता अपना गीलापन,
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− | उसी रस में तिरता जीवन।
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− | आज भी हैं क्या नित्य किशोर
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− | उसी क्रीड़ा में भाव विभोर
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− | सरलता का वह अपनापन
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− | आज भी हैं क्या मेरा धन!
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− | तुम्हारी आँखों का बचपन!
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− | ::(9)
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− | अब जागो जीवन के प्रभात!
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− | वसुधा पर ओस बने बिखरे
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− | हिमकन आँसू जो क्षोम भरे
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− | ऊषा बटोरती अरुण गात!
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− | तम-नयनो की ताराएँ सब
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− | मुँद रही किरण दल में हैं अब,
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− | चल रहा सुखद यह मलय वात!
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− | रजनी की लाज समेटी तो,
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− | कलरव से उठ कर भेंटो तो,
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− | अरुणांचल में चल रही वात।
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− | ::(10)
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− | कितने दिन जीवन जल-निधि में
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− | विकल अनिल से प्रेरित होकर
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− | लहरी, कूल चूमने चलकर
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− | उठती गिरती-सी रुक-रुककर
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− | सृजन करेगी छवि गति-विधि में !
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− | कितनी मधु-संगीत-निनादित
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− | गाथाएँ निज ले चिर-संचित
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− | तरल तान गावेगी वंचित!
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− | पागल-सी इस पथ निरवधि में!
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− | दिनकर हिमकर तारा के दल
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− | इसके मुकुर वक्ष में निर्मल
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− | चित्र बनायेंगे निज चंचल!
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− | आशा की माधुरी अवधि में !
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− | ::(11)
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− | मेरी आँखों की पुतली में
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− | तू बनकर प्रान समा जा रे!
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− | जिसके कन-कन में स्पन्दन हो,
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− | मन में मलयानिल चन्दन हो,
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− | करुणा का नव-अभिनन्दन हो
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− | वह जीवन गीत सुना जा रे!
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− | खिंच जाये अधर पर वह रेखा
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− | जिसमें अंकित हो मधु लेखा,
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− | जिसको वह विश्व करे देखा,
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− | वह स्मिति का चित्र बना जा रे !
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− | ::(13)
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− | वसुधा के अंचल पर
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− | यह क्या कन-कन-सा गया बिखर?
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− | जल शिशु की चंचल कीड़ा-सा,
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− | जैसे सरसिज दल पर।
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− | लालसा निराशा में ढलमल
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− | वेदना और सुख में विह्वल
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− | यह क्या है रे मानव जीवन?
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− | कितना है रहा निखर।
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− | मिलने चलने जब दो कन,
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− | आकर्षण-मय चुम्बन बन,
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− | दल के नस-नस मे बह जाती
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− | लघु-लघु धारा सुन्दर।
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− | हिलता-ढुलता चंचल दल,
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− | ये सब कितने हैं रहे मचल
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− | कन-कन अनन्त अम्बुधि बनते।
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− | कब रुकती लीला निष्ठुर।
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− | तब क्यों रे फिर यह सब क्यों?
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− | यह रोष भरी लाली क्यों?
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− | गिरने दे नयनों से उज्जवल
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− | आँसू के कन मनहर।
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− | वसुधा के अंचल पर।
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− | ::(14)
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− | अपलक जगती हो एक रात!
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− | सब सोये हों इस भूतल में,
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− | अपनी निरीहता सम्बल में
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− | चलती हो कोई भी न बात!
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− | पथ सोये हों हरियाली में,
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− | हों सुमन सो रहे डाली में,
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− | हो अलस उनींदी नखत पाँत!
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− | नीरव प्रशान्ति का मौन बना,
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− | चुपके किसलय से बिछल छता;
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− | थकता हो पंथी मलय-बात।
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− | वक्षस्थल में जो छिपे हुए
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− | सोते हों हृदय अभाव लिए
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− | उनके स्वप्नों का हो न प्रात।
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− | ::(15)
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− | काली आँखों का अन्धकार
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− | तब हो जाता है वार पार,
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− | मद पिये अचेतन कलाकार
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− | उन्मीलित करता क्षितिज पार
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− | वह चित्र! रंग का ले बहार
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− | जिसमें हैं केवल प्यार प्यार!
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− | केवल स्मितिमय चाँदनी रात,
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− | तारा किरनों से पुलक गात,
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− | मधुपों मुकुलों के चले घात,
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− | आता हैं चुपके मलय वात,
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− | सपनों के बादल का दुलार।
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− | तब दे जाता हैं बूँद चार!
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− | तब लहरों-सा उठकर अधीर
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− | तू मधुर व्यथा-सा शून्य चीर,
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− | सूखे किसलय-सा भरा पीर
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− | गिर जा पतझड़ का पा समीर।
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− | पहने छाती पर तरल हार।
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− | पागल पुकार फिर प्यार प्यार!
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− | ::(16)
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− | अरे कहीं देखा हैं तुमने
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− | मुझे प्यार करनेवाले को?
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− | मेरी आँखों में आकर फिर
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− | आँसू बन ढरनेवाले को?
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− | सूने नभ में आग जलाकर
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− | यह सुवर्ण-सा हृदय गलाकर
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− | जीवन सन्ध्या को नहलाकर
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− | रिक्त जलधि भरनेवाले को?
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− | रजनी के लघु-तम कन में
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− | जगती की ऊष्मा के वन में
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− | उस पर पड़ते तुहिन सघन में
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− | छिप, मुझसे डरनेवाले को?
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− | निष्ठुर खेलों पर जो अपने
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− | रहा देखता सुख के सपने
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− | आज लगा है क्या वह कँपने
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− | देख मौन मरनेवाले को?
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− | ::(17)
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− | शशि-सी वह सन्दुर रूप विभा
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− | चाहे न मुझे दिखलाना।
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− | उसकी निर्मल शीलत छाया
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− | हिमकन को बिखरा जाना।
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− | संसार स्वप्न बनकर दिन-सा
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− | आया हैं नहीं जगाने,
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− | मेरे जीवन के सुख निशीध!
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− | जाते-जाते रूक जाना।
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− | हाँ, इन जाने की घड़ियों
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− | कुछ ठहर नहीं जाओगे?
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− | छाया पथ में विश्राम नहीं,
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− | है केवल चलते जाना।
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− | मेरा अनुराग फैलने दो,
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− | नभ के अभिनव कलरव में,
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− | जाकर सूनेपन के तम में
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− | बन किरन कभी आ जाना।
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− | ::(18)
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− | अरे आ गई हैं भूली-सी
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− | यह मधु ऋतु दो दिन को,
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− | छोटी-सी कुटिया में रच दूँ,
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− | नई व्यथा साथिन को
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− | वसुधा नीचे ऊपर नभ हो,
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− | नीड़ अलग सबसे हो,
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− | झाड़खंड के चिर पतझड़ में
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− | भागो सूखे तिनको!
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− | आशा से अंकुर झूलेंगे
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− | पल्लव पुलकित होंगे,
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− | मेरे किसलय का लघु भव यह,
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− | आह, खलेगा किन को?
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− | सिहर भरी कँपती आवेंगी
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− | मलयानिल की लहरें,
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− | चुम्बन लेकर और जगाकर
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− | मानस नयन नलिन को।
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− | जबाकुसुस-सी उषा खिलेगी
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− | मेरी लघु प्राची में,
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− | हँसी भरे उस अरुण अधर का
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− | राग रँगेगा दिन को ।
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− | अन्धकार का जलधि लाँधकर
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− | आवेगी शशि-किरनें,
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− | अन्तरिक्ष छिड़केगा कन-कन
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− | निशि में मधुर तुहिन को ।
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− | इस एकान्त सृजन में कोई
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− | कुछ बाधा मत डालो,
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− | जो कुछ अपने सुन्दर से है
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− | दे देने दो इनको ।
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− | ::(11)
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− | निधरक तूने ठुकराया तब
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− | मेरी टूटी मधु प्याली को,
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− | उसके सूखे अधर माँगते
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− | तेरे चरणों की लाली को।
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− | जीवन-रस के बचे हुए कन,
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− | बिखरे अम्बर में आँसू बन,
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− | वही दे रहा था सावन घन
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− | वसुधा की इस हरियाली को।
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− | निदय हृदय में हूक उठी क्या,
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− | सोकर पहली चूक उठी क्या,
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− | अरे कसक वह कूक उठी क्या,
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− | झंकृत कर सूखी डाली को?
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− | प्राणों के प्यासे मतवाले
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− | ओ झंझा से चलनेवाले।
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− | ढलें और विस्मृति के प्याले,
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− | सोच न कृति मिटनेवाली को।
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− | ::(20)
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− | ओ री मानस की गहराई!
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− | तू सुप्त, शान्त कितनी शीतल
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− | निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल
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− | नव मुकुर नीलमणि फलक अमल,
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− | ओ पारदर्शिका! चिर चंचल
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− | यह विश्व बना हैं परछाई!
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− | तेरा विषाद द्रव तरल-तरल
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− | मूर्च्छित न रहे ज्यों पिये गरल
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− | सुख-लहर उठा री सरल-सरल
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− | लधु-लधु सुन्दर-सुन्दर अविरल,
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− | तू हँस जीवन की सुधराई!
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− | हँस, झिलमिल हो लें तारा गन,
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− | हँस खिले कुंज में सकल सुमन,
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− | हँस, बिखरें मधु मरन्द के कन,
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− | बनकर संसृति के तव श्रम कन,
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− | सब कहें दें \'वह राका आई!\'
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− | हँस ले भय शोक प्रेम या रण,
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− | हँस ले काला पट ओढ़ मरण,
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− | हँस ले जीवन के लघु-लघु क्षण,
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− | देकर निज चुम्बन के मधुकण,
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− | नाविक अतीत की उत्तराई!
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− | ::(21)
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− | मधुर माधवी संध्या मे जब रागारुण रवि होता अस्त,
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− | विरल मृदल दलवाली डालों में उलझा समीर जब व्यस्त,
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− | प्यार भरे श्मालम अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर
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− | नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा है उसे समीर
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− | तब क्यों तू अपनी आँखों में जल भरकर उदास होता,
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− | और चाहता इतना सूना-कोई भी न पास होता,
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− | वंचित रे! यह किस अतीत की विकल कल्पना का परिणाम?
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− | किसी नयन की नील दिशा में क्या कर चुका विश्राम?
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− | क्या झंकृत हो जाते हैं उन स्मृति किरणों के टूटे तार?
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− | सूने नभ में स्वर तरंग का फैलाकर मधु पारावार,
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− | नक्षत्रों से जब प्रकाश की रश्मि खेलने आती हैं,
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− | तब कमलों की-सी जब सन्ध्या क्यों उदास हो जाती है?
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