"झूलना / रवीन्द्रनाथ ठाकुर" के अवतरणों में अंतर
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14:54, 13 सितम्बर 2012 का अवतरण
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आज निशीथ वेला में
प्राणों के साथ मरण का खेल खेलूँगा.
पानी झड़ी बाँधकर बरस रहा है,
आकाश अंधकार से भरा हुआ है,
देखो वारी-धारा में
चारों दिशाएँ रो रही हैं,
इस भयानक भूमिका में संसार तरंग में
मैं अपनी डोंगी छोड़ता हूँ;
मैं इस रात्रि-वेला में,
नींद की अवहेलना करके बाहर निकल पड़ा हूँ .
आज हवा में गगन में सागर में कैसा कलरव उठ रहा है.
इसमें झूलो,झूलो!
पीछे से हू-हू करता हुआ आंधी का पागल झोंका
हँसता हुआ आता है और धक्का मरता है,
मानो लक्ष-लक्ष यक्ष शिशुओं का शोर-गुल हो.
आकाश में पाताल में पागलो और मदमातों का हो-हल्ला हो.
इसमें झूलो-झूलो!
आज मेरे प्राण जागकर
बैठ गये हैं आकर छाती के पास .
रह-रहकर कांपते हैं,
मेरे वक्ष को जकड़ लेते हैं,
निष्ठुर निविड़ बंधन के सुख में ह्रदय नाचने लगता है;
छाती के पास
प्राण-लास से उल्लास से विकल हो जाता है.
इतने दिनों तक मैंने तुझे यत्नपूर्वक
सुला रखा था.
जागने पर कष्ट होगा,दुःख होगा;
इसीलिए बड़े स्नेह से
तुझे कुसुम-शय्या सजाकर
दिन में भी सुला रखा था;