भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"झूलना / रवीन्द्रनाथ ठाकुर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |संग्रह=सोन...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
पंक्ति 25: पंक्ति 25:
 
आकाश में पाताल में पागलो और मदमातों का हो-हल्ला हो.
 
आकाश में पाताल में पागलो और मदमातों का हो-हल्ला हो.
 
इसमें झूलो-झूलो!
 
इसमें झूलो-झूलो!
 +
 +
आज मेरे प्राण जागकर
 +
बैठ गये हैं आकर छाती के पास .
 +
रह-रहकर कांपते हैं,
 +
मेरे वक्ष को जकड़ लेते हैं,
 +
निष्ठुर निविड़ बंधन के सुख में ह्रदय नाचने लगता है;
 +
छाती के पास
 +
प्राण-लास से उल्लास से विकल हो जाता है.
 +
 +
इतने दिनों तक मैंने तुझे यत्नपूर्वक
 +
सुला रखा था.
 +
जागने पर कष्ट होगा,दुःख होगा;
 +
इसीलिए बड़े स्नेह से
 +
तुझे कुसुम-शय्या सजाकर
 +
दिन में भी सुला रखा था;

14:54, 13 सितम्बर 2012 का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: रवीन्द्रनाथ ठाकुर  » संग्रह: सोने की नाव
»  झूलना

आज निशीथ वेला में
प्राणों के साथ मरण का खेल खेलूँगा.
पानी झड़ी बाँधकर बरस रहा है,
आकाश अंधकार से भरा हुआ है,
देखो वारी-धारा में
चारों दिशाएँ रो रही हैं,
इस भयानक भूमिका में संसार तरंग में
मैं अपनी डोंगी छोड़ता हूँ;
मैं इस रात्रि-वेला में,
नींद की अवहेलना करके बाहर निकल पड़ा हूँ .

आज हवा में गगन में सागर में कैसा कलरव उठ रहा है.
इसमें झूलो,झूलो!
पीछे से हू-हू करता हुआ आंधी का पागल झोंका
हँसता हुआ आता है और धक्का मरता है,
मानो लक्ष-लक्ष यक्ष शिशुओं का शोर-गुल हो.
आकाश में पाताल में पागलो और मदमातों का हो-हल्ला हो.
इसमें झूलो-झूलो!

आज मेरे प्राण जागकर
बैठ गये हैं आकर छाती के पास .
रह-रहकर कांपते हैं,
मेरे वक्ष को जकड़ लेते हैं,
निष्ठुर निविड़ बंधन के सुख में ह्रदय नाचने लगता है;
छाती के पास
प्राण-लास से उल्लास से विकल हो जाता है.

इतने दिनों तक मैंने तुझे यत्नपूर्वक
सुला रखा था.
जागने पर कष्ट होगा,दुःख होगा;
इसीलिए बड़े स्नेह से
तुझे कुसुम-शय्या सजाकर
दिन में भी सुला रखा था;