"ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई / मजाज़ लखनवी" के अवतरणों में अंतर
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− | ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई | + | ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई |
− | हाँ लुत्फ़ जब है पाके भी ढूँढा करे कोई | + | हाँ लुत्फ़ जब है पाके भी ढूँढा करे कोई |
तुम ने तो हुक्म-ए-तर्क-ए-तमन्ना<ref>तमन्ना के त्याग का आदेश </ref> सुना दिया, | तुम ने तो हुक्म-ए-तर्क-ए-तमन्ना<ref>तमन्ना के त्याग का आदेश </ref> सुना दिया, | ||
− | किस दिल से आह तर्क-ए-तमन्ना<ref>तमन्ना का त्याग</ref> करे कोई | + | किस दिल से आह तर्क-ए-तमन्ना<ref>तमन्ना का त्याग</ref> करे कोई |
दुनिया लरज़<ref>काँप</ref> गई दिल-ए-हिरमाँनसीब<ref>नसीब के मारे हुए</ref> की, | दुनिया लरज़<ref>काँप</ref> गई दिल-ए-हिरमाँनसीब<ref>नसीब के मारे हुए</ref> की, | ||
− | इस तरह साज़-ए-ऐश न छेड़ा करे कोई | + | इस तरह साज़-ए-ऐश न छेड़ा करे कोई |
मुझ को ये आरज़ू वो उठायें नक़ाब ख़ुद, | मुझ को ये आरज़ू वो उठायें नक़ाब ख़ुद, | ||
− | उन को ये इन्तज़ार तक़ाज़ा करे कोई | + | उन को ये इन्तज़ार तक़ाज़ा करे कोई |
रंगीनी-ए-नक़ाब में ग़ुम हो गई नज़र, | रंगीनी-ए-नक़ाब में ग़ुम हो गई नज़र, | ||
− | क्या बे-हिजाबियों का तक़ाज़ा करे कोई | + | क्या बे-हिजाबियों का तक़ाज़ा करे कोई |
− | या तो किसी को जुर्रत-ए-दीदार ही न हो, | + | या तो किसी को जुर्रत-ए-दीदार<ref>दर्शन पाने का साहस </ref>ही न हो, |
− | या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई | + | या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई |
− | होती है इस में हुस्न की तौहीन ऐ 'मज़ाज़', | + | होती है इस में हुस्न की तौहीन<ref> सौन्दर्य का अपमान </ref> |
− | इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुसवा करे कोई | + | ऐ 'मज़ाज़', |
+ | इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुसवा करे कोई | ||
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08:50, 22 सितम्बर 2012 का अवतरण
ख़ुद दिल में रह के आँख से पर्दा करे कोई
हाँ लुत्फ़ जब है पाके भी ढूँढा करे कोई
तुम ने तो हुक्म-ए-तर्क-ए-तमन्ना<ref>तमन्ना के त्याग का आदेश </ref> सुना दिया,
किस दिल से आह तर्क-ए-तमन्ना<ref>तमन्ना का त्याग</ref> करे कोई
दुनिया लरज़<ref>काँप</ref> गई दिल-ए-हिरमाँनसीब<ref>नसीब के मारे हुए</ref> की,
इस तरह साज़-ए-ऐश न छेड़ा करे कोई
मुझ को ये आरज़ू वो उठायें नक़ाब ख़ुद,
उन को ये इन्तज़ार तक़ाज़ा करे कोई
रंगीनी-ए-नक़ाब में ग़ुम हो गई नज़र,
क्या बे-हिजाबियों का तक़ाज़ा करे कोई
या तो किसी को जुर्रत-ए-दीदार<ref>दर्शन पाने का साहस </ref>ही न हो,
या फिर मेरी निगाह से देखा करे कोई
होती है इस में हुस्न की तौहीन<ref> सौन्दर्य का अपमान </ref>
ऐ 'मज़ाज़',
इतना न अहल-ए-इश्क़ को रुसवा करे कोई