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हाला / हरिवंशराय बच्चन

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मधुबाला के पग-पायल क्या
पाएँगे मेरे मन पर जय !
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
 
६.
 
लवलेश लास लेकर मेरा
झरना झूमा करता इसी पर,
सर हिल्लोलित होता रह-रह,
सरि बढ़ती लहरा-लहराकर,
मेरी चंचलता की करता
रहता है सिंधु नक़ल असफल;
अज्ञानी को यह ज्ञात नहीं,
मैं भर सकती कितने सागर.
कर पाएँगे प्यासे मेरा
कितना इन प्यालो में संचय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
 
७.
 
है आज प्रवाहित में ऐसे,
जैसे कवि के ह्रदयोद्गार;
तुम रोक नहीं सकते मुझको,
कर नहीं सकोगे मुझे पार;
यह अपनी कागज़ की नावें
तट पर बाँधो आगे न बढ़ो,
ये तुम्हें डूबा देंगी गलकर
हे श्वेत-केश-धर कर्णधार;
बह सकता जो मेरी गति से
पा सकता वह मेरा आश्रय .
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
 
८.
 
उद्दाम तरंगों से अपनी
मस्जिद,गिरजाघर ,देवालय
मैं तोड़ गिरा दूँगी पल में--
मानव के बंदीगृह निश्चय.
जो कूल-किनारे तट करते
संकुचित मनुज के जीवन को,
मैं काट सबों को डालूँगी.
किसका डर मुझको?मैं निर्भय.
मैं ढहा-बहा दूँगी क्षण में
पाखंडों के गुरू गढ़ दुर्जय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
 
९.
 
फिर मैं नभ गुम्बद के नीचे
नव-निर्मल द्वीप बनाऊँगी,
जिस पर हिलमिलकर बसने को
संपूर्ण जगत् को लाऊँगी;
उन्मुक्त वायुमंडल में अब
आदर्श बनेगी मधुशाला;
प्रिय प्रकृति-परी के हाथों से
ऐसा मधुपान कराऊँगी,
चिर जरा-जीर्ण मानव जीवन से
पाएगा नूतन यौवन वय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
१०.
 
रे वक्र भ्रुओं वाले योगी !
दिखला मत मुझको वह मरुथल,
जिसमे जाएगी खो जाएगी
मेरी द्रुत गति,मेरी ध्वनि कल.
है ठीक अगर तेरा कहना,
मैं और चलूँगी इठलाकर;
संदेहों में क्यूँ व्यर्थ पडूँ?
मेरा तो विश्वास अटल--
मैं जिस जड़ मरु में पहुंचूंगी
कर दूँगी उसको जीवन मय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
 
११.
 
लघुतम गुरुतम से संयोजित --
यह जान मुझे जीवन प्यारा
परमाणु कँपा जब करता है
हिल उठता नभ मंडल सारा !
यदि एक वस्तु भी सदा रही,
तो सदा रहेगी वस्तु सभी,
त्रैलोक्य बिना जलहीन हुए
सकती न सूख कोई धारा;
सब सृष्टि नष्ट हो जाएगी,
हो जाएगा जब मेरा क्षय.
उल्लास-चपल, उन्माद-तरल,
प्रति पल पागल--मेरा परिचय !
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