"बुलबुल / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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जगत् कोलाहल में कल्लोल; | जगत् कोलाहल में कल्लोल; | ||
दुखो से पागल होकर आज | दुखो से पागल होकर आज | ||
+ | रही बुलबुल डालों पर बोल ! | ||
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+ | विभाजित करती मानव जाति | ||
+ | धरा पर देशों की दीवार, | ||
+ | ज़रा ऊपर तो उठ कर देख, | ||
+ | वही जीवन है इस-उस पर; | ||
+ | घृणा का देते हैं उपदेश | ||
+ | यहाँ धर्मों के ठेकेदार | ||
+ | खुला है सबके हित,सब काल | ||
+ | हमारी मधुशाला का द्वार, | ||
+ | करे आओ विस्मृत के भेद, | ||
+ | रहें जो जीवन में विष घोल; | ||
+ | क्रांति की जिह्वा बनकर आज, | ||
+ | रही बुलबुल डालों पर बोल ! | ||
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+ | ६. | ||
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+ | एक क्षण पात-पात में प्रेम, | ||
+ | एक क्षण डाल-डाल पर खेल, | ||
+ | एक क्षण फूल-फूल से स्नेह, | ||
+ | एक क्षण विहग-विहग से मेल; | ||
+ | अभी है जिस क्षण का अस्तित्व , | ||
+ | दूसरे क्षण बस उसकी याद, | ||
+ | याद करने वाला यदि शेष; | ||
+ | नहीं क्या संभव क्षण भर बाद | ||
+ | उड़ें अज्ञात दिशा की ओर | ||
+ | पखेरू प्राणों के पर खोल | ||
+ | सजग करती जगती को आज | ||
+ | रही बुलबुल डालों पर बोल ! | ||
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+ | ७. | ||
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+ | हमारा अमर सुखों का स्वप्न, | ||
+ | जगत् का,पर,विपरीत विधान, | ||
+ | हमारी इच्छा के प्रतिकूल | ||
+ | पड़ा है आ हम पर अनजान; | ||
+ | झुका कर इसके आगे शीश | ||
+ | नहीं मानव ने मानी हार | ||
+ | मिटा सकने में यदि असमर्थ , | ||
+ | भुला सकते हम यह संसार; | ||
+ | हमारी लाचारी की एक | ||
+ | सुरा ही औषध है अनमोल; | ||
+ | लिए निज वाणी में विद्रोह | ||
+ | रही बुलबुल डालों पर बोल ! | ||
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+ | ८. | ||
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+ | जिन्हें जीवन से संतोष, | ||
+ | उन्हें क्यूँ भाए इसका गान? | ||
+ | जिन्हें जग-जीवन से वैराग्य, | ||
+ | उन्हें क्यूँ भाए इसकी तान ? | ||
+ | हमें जग-जीवन से अनुराग, | ||
+ | हमें जग-जीवन से विद्रोह; | ||
+ | हमें क्या समझेंगे वे लोग, | ||
+ | जिन्हें सीमा-बंधन का मोह; | ||
+ | करे कोई निंदा दिन-रात | ||
+ | सुयश का पीटे कोई ढोल, | ||
+ | किए कानों को अपने बंद, | ||
रही बुलबुल डालों पर बोल ! | रही बुलबुल डालों पर बोल ! |
13:08, 28 सितम्बर 2012 के समय का अवतरण
सुरा पी,मद पी,कर मधुपान,
रही बुलबुल डालों पर बोल !
१.
लिए मादकता का संदेश
फिर मैं कब से जग के बीच ,
कहीं पर कहलाया विक्षिप्त,
कहीं पर कहलाया मैं नीच;
सुरीले कंठों का अपमान
जगत् में कर सकता है कौन ?
स्वयं,लो,प्रकृति उठी है बोल
विदा कर अपना चिर व्रत मौन.
अरे मिट्टी के पुतलों, आज
सुनो अपने कानो को खोल,
सुरा पी,मद पी,कर मधुपान,
रही बुलबुल डालों पर बोल !
२.
यही श्यामल नभ का संदेश
रहा जो तारों के संग झूम,
यही उज्ज्वल शशि का संदेश
रहा जो भू के कण-कण चूम,
यही मलयानिल का संदेश
रहे जिससे पल्लव-दल डोल,
यही कलि-कुसुमों का संदेश
रहे जो गाँठ सुरभि की खोल,
यही ले-ले उठतीं संदेश
सलिल की सहज हिलोरें लोल;
प्रकृति की प्रतिनिधि बनकर आज
रही बुलबुल डालों पर बोल !
३.
अरुण हाला से प्याला पूर्ण
ललकता,उत्सुकता के साथ
निकट आया है तेरे आज
सुकोमल मधुबाला के हाथ;
सुरा-सुषमा का पा यह योग
यदि नहीं पीने का अरमान,
भले तू कह अपने को भक्त,
कहूँगा मैं तुझको पाषाण;
हमे लघु-मानव को क्या लाज,
गए मन मुनि-देवों के मन दोल;
सरसता से संयम की जीत
रही बुलबुल डालों पर बोल !
४.
कहीं दुर्जय देवों का कोप--
कहीं तूफ़ान कहीं भूचाल,
कहीं पर प्रलयकारिणी बाढ़,
कहीं पर सर्वभक्षिनी ज्वाल;
कहीं दानव के अत्याचार,
कहीं दीनों की दैन्य पुकार,
कहीं दुश्चिंताओं के भार
दबा क्रन्दन करता संसार;
करें,आओ,मिल हम दो चार
जगत् कोलाहल में कल्लोल;
दुखो से पागल होकर आज
रही बुलबुल डालों पर बोल !
५.
विभाजित करती मानव जाति
धरा पर देशों की दीवार,
ज़रा ऊपर तो उठ कर देख,
वही जीवन है इस-उस पर;
घृणा का देते हैं उपदेश
यहाँ धर्मों के ठेकेदार
खुला है सबके हित,सब काल
हमारी मधुशाला का द्वार,
करे आओ विस्मृत के भेद,
रहें जो जीवन में विष घोल;
क्रांति की जिह्वा बनकर आज,
रही बुलबुल डालों पर बोल !
६.
एक क्षण पात-पात में प्रेम,
एक क्षण डाल-डाल पर खेल,
एक क्षण फूल-फूल से स्नेह,
एक क्षण विहग-विहग से मेल;
अभी है जिस क्षण का अस्तित्व ,
दूसरे क्षण बस उसकी याद,
याद करने वाला यदि शेष;
नहीं क्या संभव क्षण भर बाद
उड़ें अज्ञात दिशा की ओर
पखेरू प्राणों के पर खोल
सजग करती जगती को आज
रही बुलबुल डालों पर बोल !
७.
हमारा अमर सुखों का स्वप्न,
जगत् का,पर,विपरीत विधान,
हमारी इच्छा के प्रतिकूल
पड़ा है आ हम पर अनजान;
झुका कर इसके आगे शीश
नहीं मानव ने मानी हार
मिटा सकने में यदि असमर्थ ,
भुला सकते हम यह संसार;
हमारी लाचारी की एक
सुरा ही औषध है अनमोल;
लिए निज वाणी में विद्रोह
रही बुलबुल डालों पर बोल !
८.
जिन्हें जीवन से संतोष,
उन्हें क्यूँ भाए इसका गान?
जिन्हें जग-जीवन से वैराग्य,
उन्हें क्यूँ भाए इसकी तान ?
हमें जग-जीवन से अनुराग,
हमें जग-जीवन से विद्रोह;
हमें क्या समझेंगे वे लोग,
जिन्हें सीमा-बंधन का मोह;
करे कोई निंदा दिन-रात
सुयश का पीटे कोई ढोल,
किए कानों को अपने बंद,
रही बुलबुल डालों पर बोल !