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+ | न खोजने की जरुरत है, न पाने की | ||
+ | न तोड़ने की जरुरत है, न गढ़ने की | ||
+ | मैं केवल पत्थर नहीं बन जाने तक | ||
+ | अपने आपक शत्रु हूँ | ||
+ | आग के झूले से दुख दबाकर खीं-खीं हँसी के लिए। | ||
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+ | सत्य और सपनें | ||
+ | कोई किसी के दुश्मन नहीं होते हैं | ||
+ | मेरे भी नहीं। | ||
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16:56, 25 अक्टूबर 2012 का अवतरण
रचनाकार: सौरींद्र बारीक (1938)
जन्मस्थान: बारिपादा, मयूरभंज
कविता संग्रह: सामान्य कथन (1975), उपभारत(1981), आकाश परि निबिड़(1985), गुणुगुणु चित्रपट(1986), लुह ठु बि अंतरंग(1989), अनुभारत(1990) आमे दुहें (1991), चहला छाइरे घड़िए (1995), पढ़ बा न पढ़(1997)
सपनें और सत्य
कोई किसी के दुश्मन नहीं होते हैं
सपनों से झूठी नींद टूटती है
सत्य के वजन से कमर टूटती है
दोनों जीवन में नाटक
दिखाते हैं।
सपनें
झूठ का खट्टा -मीठा सत्य रूप
सत्य का मुखौटा पहनकर नाटक करते हैं ।
सत्य
सपनों के हरे रंग का आकाश बनकर
झूठी डायन जैसा डरावना दिखाई देता है।
मेरा जीवन क्या है ? कहाँ पर
मैं तो केवल बचूँगा मरने की अक्षमता से
जो सपने देखता हूँ वे टूट जाते हैं
जो सत्य कहता हूँ, तो आगे अप्राप्ति का बोझ
मैं अपने रास्ते में कई बार पानी की तरह
कई बार बादलों की तरह
कई बार ठोस बरफ के टुकड़ों की तरह
तैरता जाता हूँ।
न खोजने की जरुरत है, न पाने की
न तोड़ने की जरुरत है, न गढ़ने की
मैं केवल पत्थर नहीं बन जाने तक
अपने आपक शत्रु हूँ
आग के झूले से दुख दबाकर खीं-खीं हँसी के लिए।
सत्य और सपनें
कोई किसी के दुश्मन नहीं होते हैं
मेरे भी नहीं।