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"खुलती ही नहीं आँख उजालों के भरम से / मयंक अवस्थी" के अवतरणों में अंतर
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06:32, 7 दिसम्बर 2012 के समय का अवतरण
खुलती ही नहीं आँख उजालों के भरम से
शबरंग हुआ जाउँ मैं सूरज के करम से
तरकीब यही है उसे फूलों से ढका जाय
चेहरे को बचाना भी है पत्थर के सनम से
इक झील सरीखी है गज़ल दश्ते-अदब में
जो दूर थी, जो दूर रही, दूर है हम से
आखिर ये खुला वो सभी ताज़िर थे ग़ुहर के
जिनके भी मरासिम थे मेरे दीदा-ए-नम से
क्योंकर वो किसी मील के पत्थर पे ठहर जाय
क्यों रिन्द की निस्बत हो तेरे दैरो-हरम से
ये मेरे तख़ल्लुस का असर मुझ पे हुआ है
अब याद नहीं अपना मुझे नाम कसम से