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"रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर
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बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब' | बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब' | ||
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15:43, 18 दिसम्बर 2012 का अवतरण
रख के मेज़ों पे जो भारत का अलम बैठे हैं
जाहिरन खा के वो ओहदे की कसम बैठे हैं
बिन बुलाए ही चली आती हैं जो शाम ढले
बस उसी याद में हम दीदा-ए-नम बैठे हैं
खुश्क होटों पे जबां फेर के कब प्यास बुझी
अश्क पीते हैं यहाँ खा के जो ग़म बैठे हैं
सोचकर, राह में ठहरा नहीं इक पल के लिए
मंज़िले लुत्फ़ उठाते हैं जो कम बैठे हैं
चारसू आग है नफरत की न जाने फिर भी
"हाथ पर हाथ धरे अहले कलम बैठे हैं"
आज की रात मेरे दिल पे गिरेगी बिजली
सोलह श्रिंगार किए मेरे सनम बैठे हैं
बुझ रहे हुस्न के हुक्के को तेरे अब भी 'रक़ीब'
गुड़गुड़ाने के लिए भर के चिलम बैठे हैं