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चीरहरण करती है दिल्ली
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ख़ानाबदोश औरत
 
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रचनाकार: [[जयकृष्ण राय तुषार]]
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रचनाकार: [[किरण अग्रवाल]]
 
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यमुना में
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ख़ानाबदोश औरत
गर चुल्लू भर
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अपनी काली, गहरी पलकों से
पानी हो दिल्ली डूब मरो ।
+
ताकती है क्षितिज के उस पार
स्याह ... चाँदनी चौक हो गया
+
नादिरशाहो तनिक डरो ।
+
  
नहीं राजधानी के
+
सपना जिसकी आँखों में डूबकर
लायक
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ख़ानाबदोश हो जाता है
चीरहरण करती है दिल्ली,
+
उसकी ही तरह
भारत माँ
+
समय
की छवि दुनिया में
+
जो लम्बे-लम्बे डग भरता
शर्मसार करती है दिल्ली,
+
नापता है ब्रह्मांड को
संविधान की
+
क़समें
+
खाने वालो, कुछ तो अब सुधरो ।
+
  
तालिबान में,
+
समय
तुझमें क्या है
+
जिसकी नाक के नथुनों से
फ़र्क सोचकर हमें बताओ,
+
निकलता रहता है धुआँ
जो भी
+
जिसके पाँवों की थाप से
गुनहगार हैं उनको
+
थर्राती है धरती
फाँसी के तख़्ते तक लाओ,
+
दुनिया को
+
क्या मुँह
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दिखलाओगे नामर्दो शर्म करो ।
+
  
क्राँति करो
+
दिन
अब अत्याचारी
+
जिसके लौंग-कोट के बटन में उलझकर
महलों की दीवार ढहा दो,
+
भूल जाता है अक्सर रास्ता
कठपुतली
+
औरत उसके दिल की धडकन है
परधान देश का
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रूक जाए
उसको मौला राह दिखा दो,
+
तो रूक जाएगा समय
भ्रष्टाचारी
+
हाक़िम दिन भर
+
गाल बजाते उन्हें धरो ।
+
  
गोरख पांडेय का
+
और इसलिए टिककर नहीं ठहरती कहीं
अनुयायी
+
चलती रहती है निरन्तर ख़ानाबदोश औरत
चुप क्यों है मजनू का टीला,
+
अपने काफ़िले के साथ
आसमान की
+
पडाव-दर-पडाव
झुकी निगाहें
+
हुआ शर्म से चेहरा पीला,
+
इस समाज
+
का चेहरा बदलो
+
नुक्कड़ नाटक बन्द करो ।
+
  
गद्दी का
+
बेटी — पत्नी — माँ....
गुनाह है इतना
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वह खोदती है कोयला
उस पर बैठी बूढी अम्मा,
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वह चीरती है लकडी
दु:शासन हो
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वह काटती है पहाड
गया प्रशासन
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वह थापती है गोयठा
पुलिस-तन्त्र हो गया निकम्मा ,
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वह बनाती है रोटी
कुर्सी
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वह बनाती है घर
बची रहेगी केवल
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लेकिन उसका कोई घर नहीं होता
इटली का गुणगान करो ।
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ख़ानाबदोश औरत
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आसमान की ओर देखती है तो कल्पना चावला बनती है
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धरती की ओर ताके तो मदर टेरेसा
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हुँकार भरती है तो होती है वह झाँसी की रानी
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पैरों को झनकाए तो ईजाडोरा
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ख़ानाबदोश औरत
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विज्ञान को खगालती है तो
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जनमती है मैडम क्यूरी
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क़लम हाथ में लेती है तो महाश्वेता
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प्रेम में होती है वह क्लियोपैट्रा और उर्वशी
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भक्ति में अनुसुइय्या और मीरां
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वह जन्म देती है पुरूष को
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पुरूष जो उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है
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पुरूष जो उसको अपने इशारे पर हाँकता है
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फिर भी बिना हिम्मत हारे बढ़ती रहती है आगे
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ख़ानाबदोश औरत
 +
 
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क्योंकि वह समय के दिल की धडकन है
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अगर वह रूक जाए
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तो रूक जाएगी सृष्टि
 
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15:05, 8 जनवरी 2013 का अवतरण

ख़ानाबदोश औरत

रचनाकार: किरण अग्रवाल

ख़ानाबदोश औरत
अपनी काली, गहरी पलकों से
ताकती है क्षितिज के उस पार

सपना जिसकी आँखों में डूबकर
ख़ानाबदोश हो जाता है
उसकी ही तरह
समय
जो लम्बे-लम्बे डग भरता
नापता है ब्रह्मांड को

समय
जिसकी नाक के नथुनों से
निकलता रहता है धुआँ
जिसके पाँवों की थाप से
थर्राती है धरती

दिन
जिसके लौंग-कोट के बटन में उलझकर
भूल जाता है अक्सर रास्ता
औरत उसके दिल की धडकन है
रूक जाए
तो रूक जाएगा समय

और इसलिए टिककर नहीं ठहरती कहीं
चलती रहती है निरन्तर ख़ानाबदोश औरत
अपने काफ़िले के साथ
पडाव-दर-पडाव

बेटी — पत्नी — माँ....
वह खोदती है कोयला
वह चीरती है लकडी
वह काटती है पहाड
वह थापती है गोयठा
वह बनाती है रोटी
वह बनाती है घर
लेकिन उसका कोई घर नहीं होता

ख़ानाबदोश औरत
आसमान की ओर देखती है तो कल्पना चावला बनती है
धरती की ओर ताके तो मदर टेरेसा
हुँकार भरती है तो होती है वह झाँसी की रानी
पैरों को झनकाए तो ईजाडोरा

ख़ानाबदोश औरत
विज्ञान को खगालती है तो
जनमती है मैडम क्यूरी
क़लम हाथ में लेती है तो महाश्वेता
प्रेम में होती है वह क्लियोपैट्रा और उर्वशी
भक्ति में अनुसुइय्या और मीरां

वह जन्म देती है पुरूष को
पुरूष जो उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है
पुरूष जो उसको अपने इशारे पर हाँकता है
फिर भी बिना हिम्मत हारे बढ़ती रहती है आगे
ख़ानाबदोश औरत

क्योंकि वह समय के दिल की धडकन है
अगर वह रूक जाए
तो रूक जाएगी सृष्टि