"बेशरम समय शरमा ही जाएगा / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर
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+ | मत टेरो भिक्षुक को कहकर दानी | ||
+ | धरती की तपन न हुई अगर कम तो | ||
+ | सावन का मौसम आ ही जाएगा | ||
− | + | मिट्टी का तिल-तिलकर जलना ही तो | |
− | + | उसका कंकड़ से कंचन होना है | |
− | + | जलना है नहीं अगर जीवन में तो | |
− | + | जीवन मरीज का एक बिछौना है | |
+ | अंगारों को मनमानी करने दो | ||
+ | लपटों को हर शैतानी करने दो | ||
+ | समझौता न कर लिया गर पतझर से | ||
+ | आँगन फूलों से छा ही जाएगा। | ||
+ | बूढ़े अंबर से... | ||
− | + | वे ही मौसम को गीत बनाते जो | |
− | + | मिज़राब पहनते हैं विपदाओं की | |
− | + | हर ख़ुशी उन्हीं को दिल देती है जो | |
− | + | पी जाते हर नाख़ुशी हवाओं की | |
− | + | चिंता क्या जो टूटा हर सपना है | |
− | + | परवाह नहीं जो विश्व न अपना है | |
− | + | तुम ज़रा बाँसुरी में स्वर फूँको तो | |
− | + | पपीहा दरवाजे गा ही जाएगा। | |
− | बूढ़े अंबर से... | + | बूढ़े अंबर से... |
− | + | जो ऋतुओं की तक़दीर बदलते हैं | |
− | + | वे कुछ-कुछ मिलते हैं वीरानों से | |
− | + | दिल तो उनके होते हैं शबनम के | |
− | + | सीने उनके बनते चट्टानों से | |
− | + | हर सुख को हरजाई बन जाने दो, | |
− | + | हर दु:ख को परछाई बन जाने दो, | |
− | + | यदि ओढ़ लिया तुमने ख़ुद शीश कफ़न, | |
− | + | क़ातिल का दिल घबरा ही जाएगा। | |
− | बूढ़े अंबर से... | + | बूढ़े अंबर से... |
− | + | दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर | |
− | + | सपनों की चमकीली-सी चिलमन है, | |
− | + | परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है | |
− | + | परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है, | |
− | + | मन के कमरों के दरवाज़े खोलो | |
− | + | कुछ धूप और कुछ आँधी में डोलो | |
− | + | शरमाए पाँव न यदि कुछ काँटों से | |
− | + | बेशरम समय शरमा ही जाएगा। | |
− | + | बूढ़े अंबर से... | |
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− | दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर | + | |
− | सपनों की चमकीली-सी चिलमन है, | + | |
− | परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है | + | |
− | परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है, | + | |
− | मन के कमरों के दरवाज़े खोलो | + | |
− | कुछ धूप और कुछ आँधी में डोलो | + | |
− | शरमाए पाँव न यदि कुछ काँटों से | + | |
− | बेशरम समय शरमा ही जाएगा। | + | |
− | बूढ़े अंबर से... | + |
16:40, 8 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण
बूढ़े अंबर से माँगो मत पानी
मत टेरो भिक्षुक को कहकर दानी
धरती की तपन न हुई अगर कम तो
सावन का मौसम आ ही जाएगा
मिट्टी का तिल-तिलकर जलना ही तो
उसका कंकड़ से कंचन होना है
जलना है नहीं अगर जीवन में तो
जीवन मरीज का एक बिछौना है
अंगारों को मनमानी करने दो
लपटों को हर शैतानी करने दो
समझौता न कर लिया गर पतझर से
आँगन फूलों से छा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
वे ही मौसम को गीत बनाते जो
मिज़राब पहनते हैं विपदाओं की
हर ख़ुशी उन्हीं को दिल देती है जो
पी जाते हर नाख़ुशी हवाओं की
चिंता क्या जो टूटा हर सपना है
परवाह नहीं जो विश्व न अपना है
तुम ज़रा बाँसुरी में स्वर फूँको तो
पपीहा दरवाजे गा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
जो ऋतुओं की तक़दीर बदलते हैं
वे कुछ-कुछ मिलते हैं वीरानों से
दिल तो उनके होते हैं शबनम के
सीने उनके बनते चट्टानों से
हर सुख को हरजाई बन जाने दो,
हर दु:ख को परछाई बन जाने दो,
यदि ओढ़ लिया तुमने ख़ुद शीश कफ़न,
क़ातिल का दिल घबरा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...
दुनिया क्या है, मौसम की खिड़की पर
सपनों की चमकीली-सी चिलमन है,
परदा गिर जाए तो निशि ही निशि है
परदा उठ जाए तो दिन ही दिन है,
मन के कमरों के दरवाज़े खोलो
कुछ धूप और कुछ आँधी में डोलो
शरमाए पाँव न यदि कुछ काँटों से
बेशरम समय शरमा ही जाएगा।
बूढ़े अंबर से...