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"यादव जी ! / दिविक रमेश" के अवतरणों में अंतर

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मोह तो त्यागना पड़ता है
पुरानी से पुरानी
पुस्तकों-पत्रिकाओं का भी
एक उम्र होने पर!

काश
पुस्तकें-पत्रिकाएँ भी
जायदाद हुई होतीं
हुई होतीं जेवरात ज़रूरी।
होतीं बैंक बैलेंस ही आकर्षक!
तो मशक्कत तो न करनी पड़ती इतनी
खोजने में इनके
उत्तराधिकारी
यादव जी!