भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"याद आई पृथ्वी / दिविक रमेश" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिविक रमेश }} Category:कविता <poeM> मैं उठा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
[[Category:कविता]]
 
[[Category:कविता]]
 
<poeM>
 
<poeM>
मैं उठा ऒर उठता चला गया
+
मैं उठा और उठता चला गया
 
जैसे कि तूफान !
 
जैसे कि तूफान !
 
जा लगा उस सीने से
 
जा लगा उस सीने से
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
 
जो था ही नहीं, कहीं
 
जो था ही नहीं, कहीं
 
मेरे वज़ूद सा ।
 
मेरे वज़ूद सा ।
मैं शान्त हुआ ऒर खो गया
+
मैं शान्त हुआ और खो गया
 
हालाँकि था ही क्या खोने को पर खो गया
 
हालाँकि था ही क्या खोने को पर खो गया
  
पंक्ति 21: पंक्ति 21:
  
 
लेता रहा आकाश हिलोरे ।
 
लेता रहा आकाश हिलोरे ।
मैं उठा ऒर चढ़ बैठा आकाश के कंधों पर ।
+
मैं उठा और चढ़ बैठा आकाश के कंधों पर ।
 
मुझे साँस मिली
 
मुझे साँस मिली
 
जॆसे आकाश मेरा पिता हो ।
 
जॆसे आकाश मेरा पिता हो ।
पंक्ति 40: पंक्ति 40:
 
उसने मुझे छुआ ।
 
उसने मुझे छुआ ।
  
सामने वाले वृक्ष पर बॆठी
+
सामने वाले वृक्ष पर बैठी
 
मेरी दिवंगत माँ
 
मेरी दिवंगत माँ
 
जाने कब से निहार रही थी
 
जाने कब से निहार रही थी
 
यह किस्सा । नहीं जानता
 
यह किस्सा । नहीं जानता
  
मैं कब चटका ऒर अपने से दूर हो गया
+
मैं कब चटका और अपने से दूर हो गया
 
और बहुत करीब अपने पास आ गया ।
 
और बहुत करीब अपने पास आ गया ।
 
जाने क्या गुनगुनाता रहा देर तक
 
जाने क्या गुनगुनाता रहा देर तक

12:58, 19 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण

मैं उठा और उठता चला गया
जैसे कि तूफान !
जा लगा उस सीने से
बेहद करीबी अपने सीने से

जो था ही नहीं, कहीं
मेरे वज़ूद सा ।
मैं शान्त हुआ और खो गया
हालाँकि था ही क्या खोने को पर खो गया

ठीक बहला दिए गए किसी बच्चे की जिद-सा ।
मैंने देखा आकाश मुझमें डूब गया था
पूरा का पूरा ।
मैं मारता रहा हाथ-पाँव

लेता रहा आकाश हिलोरे ।
मैं उठा और चढ़ बैठा आकाश के कंधों पर ।
मुझे साँस मिली
जॆसे आकाश मेरा पिता हो ।

मैंने याद किया
बहुत याद किया पृथ्वी को
जो गायब थी मेरे पैरों से ।
यूँ मिली ही कब थी वह ।

मैंने याद किया
महज याद करने के लिए
ऒर लूटता रहा सुख औपचारिकता का
और सताता रहा याद को, रुलाता रहा ।

कितना शैतान था न मैं !
बहुत प्यार से देखा मुझे याद ने
लाड़ उमड़ आया था उसका
उसने मुझे छुआ ।

सामने वाले वृक्ष पर बैठी
मेरी दिवंगत माँ
जाने कब से निहार रही थी
यह किस्सा । नहीं जानता

मैं कब चटका और अपने से दूर हो गया
और बहुत करीब अपने पास आ गया ।
जाने क्या गुनगुनाता रहा देर तक
बैठा अपनी टाट बिछी पृथ्वी की गोद में ।

तुम कहाँ हो पृथ्वी
कहाँ किस टहनी पर अटकी हो
वृक्ष की ! आओ और मेरे पाँवों को
जमीन दो ओ माँ ।