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"अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
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तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ। | तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ। |
12:00, 1 अप्रैल 2013 का अवतरण
अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ।
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ।
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।
समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ।