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"अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर

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तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।<br><br>
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उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।
  
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इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।<br><br>
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उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।<br><br>
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तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।
  
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मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।<br><br>
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तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।
  
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,<br>
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तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।<br><br>
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सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।
 
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मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,<br>
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तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।<br><br>
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समाआलोचको की दुआ है कि मैं फिर,<br>
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सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।<br><br>
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12:34, 1 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण

अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।

ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।

अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।

वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।

तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।

मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।

समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।