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"सतपुड़ा के जंगल / भवानीप्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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सतपुड़ा के घने जंगल।
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        नींद मे डूबे हुए से
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        ऊँघते अनमने जंगल।
  
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झाड ऊँचे और नीचे,
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चुप खड़े हैं आँख मीचे,
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घास चुप है, कास चुप है
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मूक शाल, पलाश चुप है।
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बन सके तो धँसो इनमें,
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धँस न पाती हवा जिनमें,
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सतपुड़ा के घने जंगल
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ऊँघते अनमने जंगल।
  
सतपुड़ा के घने जंगल।<br>
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                सड़े पत्ते, गले पत्ते,
नींद मे डूबे हुए से<br>
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                हरे पत्ते, जले पत्ते,
ऊँघते अनमने जंगल।<br><br>
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                वन्य पथ को ढँक रहे-से
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                पंक-दल मे पले पत्ते।
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                चलो इन पर चल सको तो,
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                दलो इनको दल सको तो,
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                ये घिनोने, घने जंगल
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                नींद मे डूबे हुए से
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                ऊँघते अनमने जंगल।
  
झाड ऊँचे और नीचे,<br>
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अटपटी-उलझी लताऐं,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,<br>
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डालियों को खींच खाऐं,
घास चुप है, कास चुप है<br>
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पैर को पकड़ें अचानक,
मूक शाल, पलाश चुप है।<br>
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प्राण को कस लें कपाऐं।
बन सके तो धँसो इनमें,<br>
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सांप सी काली लताऐं
धँस न पाती हवा जिनमें,<br>
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बला की पाली लताऐं
सतपुड़ा के घने जंगल<br>
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लताओं के बने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।<br><br>
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नींद मे डूबे हुए से
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ऊँघते अनमने जंगल।
  
सड़े पत्ते, गले पत्ते,<br>
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                मकड़ियों के जाल मुँह पर,
हरे पत्ते, जले पत्ते,<br>
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                और सर के बाल मुँह पर
वन्य पथ को ढँक रहे-से<br>
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                मच्छरों के दंश वाले,
पंक-दल मे पले पत्ते।<br>
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                दाग काले-लाल मुँह पर,
चलो इन पर चल सको तो,<br>
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                वात- झन्झा वहन करते,
दलो इनको दल सको तो,<br>
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                चलो इतना सहन करते,
ये घिनोने, घने जंगल<br>
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                कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से<br>
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                नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।<br><br>
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                ऊँघते अनमने जंगल|
  
अटपटी-उलझी लताऐं,<br>
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अजगरों से भरे जंगल।
डालियों को खींच खाऐं,<br>
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अगम, गति से परे जंगल
पैर को पकड़ें अचानक,<br>
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सात-सात पहाड़ वाले,
प्राण को कस लें कपाऐं।<br>
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बड़े छोटे झाड़ वाले,
सांप सी काली लताऐं<br>
+
शेर वाले बाघ वाले,
बला की पाली लताऐं<br>
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गरज और दहाड़ वाले,
लताओं के बने जंगल<br>
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कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से<br>
+
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।<br><br>
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ऊँघते अनमने जंगल।
  
मकड़ियों के जाल मुँह पर,<br>
+
                इन वनों के खूब भीतर,
और सर के बाल मुँह पर<br>
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                चार मुर्गे, चार तीतर
मच्छरों के दंश वाले,<br>
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                पाल कर निश्चिन्त बैठे,
दाग काले-लाल मुँह पर,<br>
+
                विजनवन के बीच बैठे,
वात- झन्झा वहन करते,<br>
+
                झोंपडी पर फ़ूंस डाले
चलो इतना सहन करते,<br>
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                गोंड तगड़े और काले।
कष्ट से ये सने जंगल,<br>
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                जब कि होली पास आती,
नींद मे डूबे हुए से<br>
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                सरसराती घास गाती,
ऊँघते अनमने जंगल|<br><br>
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                और महुए से लपकती,
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                मत्त करती बास आती,
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                गूंज उठते ढोल इनके,
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                गीत इनके, बोल इनके
  
अजगरों से भरे जंगल।<br>
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                सतपुड़ा के घने जंगल
अगम, गति से परे जंगल<br>
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                नींद मे डूबे हुए से
सात-सात पहाड़ वाले,<br>
+
                उँघते अनमने जंगल।
बड़े छोटे झाड़ वाले,<br>
+
शेर वाले बाघ वाले,<br>
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गरज और दहाड़ वाले,<br>
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कम्प से कनकने जंगल, <br>
+
नींद मे डूबे हुए से<br>
+
ऊँघते अनमने जंगल।<br><br>
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इन वनों के खूब भीतर,<br>
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जागते अँगड़ाइयों में,
चार मुर्गे, चार तीतर<br>
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खोह-खड्डों खाइयों में,
पाल कर निश्चिन्त बैठे,<br>
+
घास पागल, कास पागल,
विजनवन के बीच बैठे,<br>
+
शाल और पलाश पागल,
झोंपडी पर फ़ूंस डाले<br>
+
लता पागल, वात पागल,
गोंड तगड़े और काले।<br>
+
डाल पागल, पात पागल
जब कि होली पास आती,<br>
+
मत्त मुर्गे और तीतर,
सरसराती घास गाती,<br>
+
इन वनों के खूब भीतर।
और महुए से लपकती,<br>
+
क्षितिज तक फ़ैला हुआ सा,
मत्त करती बास आती,<br>
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मृत्यु तक मैला हुआ सा,
गूंज उठते ढोल इनके,<br>
+
क्षुब्ध, काली लहर वाला
गीत इनके, बोल इनके<br>
+
मथित, उत्थित जहर वाला,
सतपुड़ा के घने जंगल<br>
+
मेरु वाला, शेष वाला
नींद मे डूबे हुए से<br>
+
शम्भु और सुरेश वाला
उँघते अनमने जंगल।<br><br>
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एक सागर जानते हो,
 +
उसे कैसा मानते हो?
 +
ठीक वैसे घने जंगल,
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नींद मे डूबे हुए से
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ऊँघते अनमने जंगल|
  
जागते अँगड़ाइयों में,<br>
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                धँसो इनमें डर नहीं है,
खोह-खड्डों खाइयों में,<br>
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                मौत का यह घर नहीं है,
घास पागल, कास पागल,<br>
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                उतर कर बहते अनेकों,  
शाल और पलाश पागल,<br>
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                कल-कथा कहते अनेकों,
लता पागल, वात पागल,<br>
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                नदी, निर्झर और नाले,  
डाल पागल, पात पागल<br>
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                इन वनों ने गोद पाले।
मत्त मुर्गे और तीतर,<br>
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                लाख पंछी सौ हिरन-दल,
इन वनों के खूब भीतर।<br>
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                चाँद के कितने किरन दल,
क्षितिज तक फ़ैला हुआ सा,<br>
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                झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
मृत्यु तक मैला हुआ सा,<br>
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                खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
क्षुब्ध, काली लहर वाला<br>
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                हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
मथित, उत्थित जहर वाला,<br>
+
                पूत, पावन, पूर्ण रसमय
मेरु वाला, शेष वाला<br>
+
                सतपुड़ा के घने जंगल,  
शम्भु और सुरेश वाला<br>
+
                लताओं के बने जंगल।
एक सागर जानते हो,<br>
+
उसे कैसा मानते हो?<br>
+
ठीक वैसे घने जंगल,<br>
+
नींद मे डूबे हुए से<br>
+
ऊँघते अनमने जंगल|<br><br>
+
 
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धँसो इनमें डर नहीं है,<br>
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मौत का यह घर नहीं है,<br>
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उतर कर बहते अनेकों, <br>
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कल-कथा कहते अनेकों,<br>
+
नदी, निर्झर और नाले, <br>
+
इन वनों ने गोद पाले।<br>
+
लाख पंछी सौ हिरन-दल,<br>
+
चाँद के कितने किरन दल,<br>
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झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,<br>
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खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,<br>
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हरित दूर्वा, रक्त किसलय,<br>
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पूत, पावन, पूर्ण रसमय<br>
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सतपुड़ा के घने जंगल, <br>
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लताओं के बने जंगल।<br>
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18:27, 1 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण

सतपुड़ा के घने जंगल।
        नींद मे डूबे हुए से
        ऊँघते अनमने जंगल।

झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।

                सड़े पत्ते, गले पत्ते,
                हरे पत्ते, जले पत्ते,
                वन्य पथ को ढँक रहे-से
                पंक-दल मे पले पत्ते।
                चलो इन पर चल सको तो,
                दलो इनको दल सको तो,
                ये घिनोने, घने जंगल
                नींद मे डूबे हुए से
                ऊँघते अनमने जंगल।

अटपटी-उलझी लताऐं,
डालियों को खींच खाऐं,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाऐं।
सांप सी काली लताऐं
बला की पाली लताऐं
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

                मकड़ियों के जाल मुँह पर,
                और सर के बाल मुँह पर
                मच्छरों के दंश वाले,
                दाग काले-लाल मुँह पर,
                वात- झन्झा वहन करते,
                चलो इतना सहन करते,
                कष्ट से ये सने जंगल,
                नींद मे डूबे हुए से
                ऊँघते अनमने जंगल|

अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।

                इन वनों के खूब भीतर,
                चार मुर्गे, चार तीतर
                पाल कर निश्चिन्त बैठे,
                विजनवन के बीच बैठे,
                झोंपडी पर फ़ूंस डाले
                गोंड तगड़े और काले।
                जब कि होली पास आती,
                सरसराती घास गाती,
                और महुए से लपकती,
                मत्त करती बास आती,
                गूंज उठते ढोल इनके,
                गीत इनके, बोल इनके

                सतपुड़ा के घने जंगल
                नींद मे डूबे हुए से
                उँघते अनमने जंगल।

जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।
क्षितिज तक फ़ैला हुआ सा,
मृत्यु तक मैला हुआ सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल|

                धँसो इनमें डर नहीं है,
                मौत का यह घर नहीं है,
                उतर कर बहते अनेकों,
                कल-कथा कहते अनेकों,
                नदी, निर्झर और नाले,
                इन वनों ने गोद पाले।
                लाख पंछी सौ हिरन-दल,
                चाँद के कितने किरन दल,
                झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
                खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
                हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
                पूत, पावन, पूर्ण रसमय
                सतपुड़ा के घने जंगल,
                लताओं के बने जंगल।