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"कबीर दोहावली / पृष्ठ ८" के अवतरणों में अंतर

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सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय । <BR/>
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सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।  
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥  
  
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । <BR/>
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अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।  
यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥ <BR/><BR/>
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यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥  
  
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय । <BR/>
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यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।  
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥ <BR/><BR/>
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सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥  
  
गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल । <BR/>
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गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।  
लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥ <BR/><BR/>
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लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥  
  
आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल । <BR/>
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आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।  
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥ <BR/><BR/>
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शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥  
  
द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय । <BR/>
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द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।  
कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥ <BR/><BR/>
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कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥  
  
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । <BR/>
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उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।  
कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥  
  
कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर । <BR/>
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कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।  
जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥ <BR/><BR/>
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जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥  
  
गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय । <BR/>
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गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।  
कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥  
  
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग । <BR/>
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गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।  
कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥  
  
यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग । <BR/>
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यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।  
सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥ <BR/><BR/>
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सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥  
  
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत । <BR/>
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ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।  
सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥ <BR/><BR/>
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सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥  
  
दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान । <BR/>
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दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।  
सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥ <BR/><BR/>
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सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥  
  
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । <BR/>
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शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।  
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥ <BR/><BR/>
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लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥  
  
॥ दासता पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
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॥ दासता पर दोहे ॥  
  
  
कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त । <BR/>
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कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।  
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥ <BR/><BR/>
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तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥  
  
कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय । <BR/>
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कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।  
जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥ <BR/><BR/>
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जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥  
  
सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग । <BR/>
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सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।  
रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥ <BR/><BR/>
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रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥  
  
गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास । <BR/>
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गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।  
रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥ <BR/><BR/>
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रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥  
  
लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ । <BR/>
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लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।  
कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥  
  
काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय । <BR/>
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काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।  
फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥ <BR/><BR/>
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फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥  
  
दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास । <BR/>
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दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।  
अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥ <BR/><BR/>
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अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥  
  
दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन । <BR/>
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दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।  
कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥  
  
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । <BR/>
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दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।  
पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥ <BR/><BR/>
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पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥  
  
॥ भक्ति पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
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॥ भक्ति पर दोहे ॥  
  
  
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय । <BR/>
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भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।  
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥ <BR/><BR/>
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भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥  
  
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त । <BR/>
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भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।  
ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥ <BR/><BR/>
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ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥  
  
भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय । <BR/>
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भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।  
सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥ <BR/><BR/>
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सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥  
  
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय । <BR/>
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भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।  
और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥ <BR/><BR/>
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और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥  
  
भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम । <BR/>
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भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।  
सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥ <BR/><BR/>
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सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥  
  
भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय । <BR/>
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भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।  
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥ <BR/><BR/>
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प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥  
  
भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश । <BR/>
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भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।  
भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥ <BR/><BR/>
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भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥  
  
कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज । <BR/>
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कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।  
बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥ <BR/><BR/>
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बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥  
  
भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय । <BR/>
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भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।  
मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥ <BR/><BR/>
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मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥  
  
भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय । <BR/>
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भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।  
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥ <BR/><BR/>
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शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥  
  
भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय । <BR/>
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भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।  
जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥ <BR/><BR/>
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जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥  
  
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार । <BR/>
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गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।  
बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥ <BR/><BR/>
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बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥  
  
भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव । <BR/>
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भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।  
भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥ <BR/><BR/>
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भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥  
  
कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास । <BR/>
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कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।  
मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥ <BR/><BR/>
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मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥  
  
कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार । <BR/>
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कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।  
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥ <BR/><BR/>
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धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥  
  
जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय । <BR/>
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जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।  
कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥  
  
देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग । <BR/>
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देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग ।  
बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥ <BR/><BR/>
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बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥  
  
आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय । <BR/>
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आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।  
करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥ <BR/><BR/>
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करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥  
  
जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । <BR/>
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जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।  
कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥  
  
पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत । <BR/>
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पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।  
मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥ <BR/><BR/>
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मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥  
  
निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान । <BR/>
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निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।  
निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥ <BR/><BR/>
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निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥  
  
तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान । <BR/>
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तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।  
सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥ <BR/><BR/>
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सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥  
  
खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर । <BR/>
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खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।  
भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥ <BR/><BR/>
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भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥  
  
ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय । <BR/>
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ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।  
देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥ <BR/><BR/>
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देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥  
  
भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट । <BR/>
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भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।  
निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥ <BR/><BR/>
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निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥  
  
भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । <BR/>
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भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।  
परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥ <BR/><BR/>
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परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥  
  
भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय । <BR/>
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भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।  
जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥ <BR/><BR/>
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जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥  
  
और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म । <BR/>
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और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।  
कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥ <BR/><BR/>
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कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥  
  
विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान । <BR/>
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विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।  
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥ <BR/><BR/>
+
सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥  
  
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय । <BR/>
+
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।  
नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥ <BR/><BR/>
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नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥  
  
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । <BR/>
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भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।  
पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥ <BR/><BR/>
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पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥  
  
॥ चेतावनी  ॥ <BR/><BR/>
+
॥ चेतावनी  ॥  
  
  
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ । <BR/>
+
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।  
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥ <BR/><BR/>
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हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥  
  
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास । <BR/>
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कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।  
काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥ <BR/><BR/>
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काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥  
  
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस । <BR/>
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कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।  
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥ <BR/><BR/>
+
टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥  
  
कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस । <BR/>
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कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।  
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥ <BR/><BR/>
+
ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥  
  
कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल । <BR/>
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कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।  
दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥ <BR/><BR/>
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दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥  
  
कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह । <BR/>
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कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।  
दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥ <BR/><BR/>
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दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥  
  
कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान । <BR/>
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कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।  
सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥ <BR/><BR/>
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सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥  
  
कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय । <BR/>
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कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।  
यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥ <BR/><BR/>
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यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥  
  
कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ । <BR/>
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कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।  
इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥ <BR/><BR/>
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इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥  
  
कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव । <BR/>
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कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।  
कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥ <BR/><BR/>
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कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥  
  
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल । <BR/>
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कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।  
चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥ <BR/><BR/>
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चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥  
  
कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि । <BR/>
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कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।  
खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥ <BR/><BR/>
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खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥  
  
कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल । <BR/>
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कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।  
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥ <BR/><BR/>
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दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥  
  
कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । <BR/>
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कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।  
जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥ <BR/><BR/>
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जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥  
  
कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार । <BR/>
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कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।  
जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥ <BR/><BR/>
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जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥  
  
कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन । <BR/>
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कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।  
साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥ <BR/><BR/>
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साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥  
  
कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए । <BR/>
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कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।  
केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥ <BR/><BR/>
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केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥  
  
कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । <BR/>
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कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।  
एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥ <BR/><BR/>
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एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥  
  
कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार । <BR/>
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कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।  
हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥ <BR/><BR/>
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हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥  
  
एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह । <BR/>
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एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।  
राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥ <BR/><BR/>
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राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥  
  
ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि । <BR/>
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औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥ <BR/><BR/>
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मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम । <BR/>
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ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥ <BR/><BR/>
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ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥ <BR/><BR/>
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कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक । <BR/>
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कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥ <BR/><BR/>
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हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । <BR/>
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सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥ <BR/><BR/>
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ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥ <BR/><BR/>
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ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार । <BR/>
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रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥ <BR/><BR/>
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पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज । <BR/>
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काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥ <BR/><BR/>
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अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥ <BR/><BR/>
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कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय । <BR/>
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मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥ <BR/><BR/>
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ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥ <BR/><BR/>
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वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥ <BR/><BR/>
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एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥ <BR/><BR/>
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पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय । <BR/>
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मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन । <BR/>
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घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत । <BR/>
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आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥ <BR/><BR/>
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अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥ <BR/><BR/>
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पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान । <BR/>
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अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥ <BR/><BR/>
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पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम । <BR/>
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दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥ <BR/><BR/>
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कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि । <BR/>
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घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥ <BR/><BR/>
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यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ । <BR/>
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टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥ <BR/><BR/>
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कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय । <BR/>
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कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय ।  
इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ <BR/><BR/>
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जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि । <BR/>
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जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥ <BR/><BR/>
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13:53, 6 अप्रैल 2013 का अवतरण

सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय । कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥

अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय । यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥

यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय । सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥

गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल । लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥

आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल । शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥

द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय । कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥

उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥

कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर । जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥

गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय । कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥

गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग । कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥

यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग । सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥

ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत । सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥

दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान । सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥

शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥

॥ दासता पर दोहे ॥


कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त । तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥

कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय । जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥

सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग । रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥

गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास । रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥

लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ । कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥

काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय । फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥

दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास । अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥

दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन । कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥

दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥

॥ भक्ति पर दोहे ॥


भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय । भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥

भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त । ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥

भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय । सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥

भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय । और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥

भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम । सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥

भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय । प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥

भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश । भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥

कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज । बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥

भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय । मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥

भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय । शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥

भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय । जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥

गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार । बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव । भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥

कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास । मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥

कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार । धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥

जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय । कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥

देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग । बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥

आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय । करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥

जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥

पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत । मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥

निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान । निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥

तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान । सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥

खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर । भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥

ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय । देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥

भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट । निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥

भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव । परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥

भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय । जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥

और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म । कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥

विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान । सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥

भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय । नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥

भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥

॥ चेतावनी ॥


कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ । हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥

कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास । काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥

कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस । टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥

कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस । ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥

कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल । दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥

कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह । दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥

कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान । सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥

कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय । यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥

कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ । इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥

कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव । कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥

कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल । चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥

कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि । खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥

कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल । दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥

कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन । जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥

कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार । जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥

कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन । साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥

कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए । केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥

कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय । एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥

कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार । हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥

एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह । राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥

ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि । औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥

मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम । ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥

कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय । ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥

कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक । कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥

कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत । सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥

हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास । सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥

आज काल के बीच में, जंगल होगा वास । ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥

ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार । रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥

पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज । काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥

आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत । अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥

आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल । आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥

कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय । मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥

सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग । ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥

ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय । वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥

ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय । एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥

ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल । एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥

पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय । ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥

मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन । मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥

घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत । आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥

हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार । अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥

पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान । अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥

पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम । दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥

कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि । घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥

यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ । टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥

कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय । इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥

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