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"अपने ज़िले की मिट्टी से / फणीश्वर नाथ रेणु" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार =फणीश्वर नाथ रेणु
 
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कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी
 
कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी
 
 
इसी से हर सुबह कुछ पूछता हूँ
 
इसी से हर सुबह कुछ पूछता हूँ
 
 
तुम्हारे पेड़ से, पत्तों से
 
तुम्हारे पेड़ से, पत्तों से
 
 
दरिया औ' दयारों से
 
दरिया औ' दयारों से
 
 
सुबह की ऊंघती-सी, मदभरी ठंडी हवा से
 
सुबह की ऊंघती-सी, मदभरी ठंडी हवा से
 
 
कि बोलो! रात तो गुज़री ख़ुशी से?
 
कि बोलो! रात तो गुज़री ख़ुशी से?
 
 
कि बोलो! डर नहीं तो है किसी का?
 
कि बोलो! डर नहीं तो है किसी का?
 
  
 
तुम्हारी सर्द आहों पर सशंकित
 
तुम्हारी सर्द आहों पर सशंकित
 
 
सदा एकांत में मैं सूंघता हूँ
 
सदा एकांत में मैं सूंघता हूँ
 
 
उठाकर चंद ढेले
 
उठाकर चंद ढेले
 
 
उठाकर धूल मुट्ठी-भर
 
उठाकर धूल मुट्ठी-भर
 
 
कि मिट्टी जी रही है तो!
 
कि मिट्टी जी रही है तो!
 
  
 
बला से जलजला आए
 
बला से जलजला आए
 
 
बवंडर-बिजलियाँ-तूफ़ाँ हज़ारों ज़ुल्म ढाएँ
 
बवंडर-बिजलियाँ-तूफ़ाँ हज़ारों ज़ुल्म ढाएँ
 
 
अगर ज़िंदी रही तू
 
अगर ज़िंदी रही तू
 
 
फिर न परवाह है किसी की
 
फिर न परवाह है किसी की
 
 
नहीं है सिर पे गोकि 'स्याह-टोपी'
 
नहीं है सिर पे गोकि 'स्याह-टोपी'
 
 
नहीं हूँ 'प्राण-हिन्दू' तो हुआ क्या?
 
नहीं हूँ 'प्राण-हिन्दू' तो हुआ क्या?
 
 
घुमाता हूँ नहीं मैं रोज़ डंडे-लाठियाँ तो!
 
घुमाता हूँ नहीं मैं रोज़ डंडे-लाठियाँ तो!
 
 
सुनाता हूँ नहीं--
 
सुनाता हूँ नहीं--
 
 
गांधी-जवाहर, पूज्यजन को गालियाँ तो!
 
गांधी-जवाहर, पूज्यजन को गालियाँ तो!
 
 
सिर्फ़ 'हिंदी' रहा मैं
 
सिर्फ़ 'हिंदी' रहा मैं
 
 
सिर्फ़ ज़िंदी रही तू
 
सिर्फ़ ज़िंदी रही तू
 
 
और हमने सब किया अब तक!
 
और हमने सब किया अब तक!
 
  
 
सिर्फ़ दो-चार क़तरे 'ध्रुव' का ताज़ा लहू ही
 
सिर्फ़ दो-चार क़तरे 'ध्रुव' का ताज़ा लहू ही
 
 
बड़ी फ़िरकापरस्ती फ़ौज को भी रोक लेगा
 
बड़ी फ़िरकापरस्ती फ़ौज को भी रोक लेगा
 
 
कमीनी हरक़तों को रोक लेगा
 
कमीनी हरक़तों को रोक लेगा
 
 
कि अब तो हो गई मिट्टी सरहदी
 
कि अब तो हो गई मिट्टी सरहदी
 
 
(इसी से डर रहा हूँ!)
 
(इसी से डर रहा हूँ!)
 
 
कि मिट्टी मर गई पंजाब की थी
 
कि मिट्टी मर गई पंजाब की थी
 
 
शेरे-पंजाब के प्यारे वतन की
 
शेरे-पंजाब के प्यारे वतन की
 
 
'भगत'
 
'भगत'

11:03, 11 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण

कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी
इसी से हर सुबह कुछ पूछता हूँ
तुम्हारे पेड़ से, पत्तों से
दरिया औ' दयारों से
सुबह की ऊंघती-सी, मदभरी ठंडी हवा से
कि बोलो! रात तो गुज़री ख़ुशी से?
कि बोलो! डर नहीं तो है किसी का?

तुम्हारी सर्द आहों पर सशंकित
सदा एकांत में मैं सूंघता हूँ
उठाकर चंद ढेले
उठाकर धूल मुट्ठी-भर
कि मिट्टी जी रही है तो!

बला से जलजला आए
बवंडर-बिजलियाँ-तूफ़ाँ हज़ारों ज़ुल्म ढाएँ
अगर ज़िंदी रही तू
फिर न परवाह है किसी की
नहीं है सिर पे गोकि 'स्याह-टोपी'
नहीं हूँ 'प्राण-हिन्दू' तो हुआ क्या?
घुमाता हूँ नहीं मैं रोज़ डंडे-लाठियाँ तो!
सुनाता हूँ नहीं--
गांधी-जवाहर, पूज्यजन को गालियाँ तो!
सिर्फ़ 'हिंदी' रहा मैं
सिर्फ़ ज़िंदी रही तू
और हमने सब किया अब तक!

सिर्फ़ दो-चार क़तरे 'ध्रुव' का ताज़ा लहू ही
बड़ी फ़िरकापरस्ती फ़ौज को भी रोक लेगा
कमीनी हरक़तों को रोक लेगा
कि अब तो हो गई मिट्टी सरहदी
(इसी से डर रहा हूँ!)
कि मिट्टी मर गई पंजाब की थी
शेरे-पंजाब के प्यारे वतन की
'भगत'