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ओह !
कितना पसन्द है हमें
दिखावा करना
और कितनी सहजता से हम
यह भूल जाते हैं, प्यारे
कि बचपन में मृत्यु होती है
अधिक निकट हमारे
बच्चा
जब ठीक से सो नहीं पाता
चिड़चिड़ाता है
पर मैं भला किस पर
हो सकता हूँ नाराज़
जब अकेला चल रहा हूँ
अपनी राह पर आज
मैं सोना नहीं चाहता
गहरे जल में डूबी मछली-सा
निश्चिन्त बेहोश नींद
मुझे प्रिय है
राह अपनी स्वतन्त्र
जानता हूँ निष्कंटक नहीं वह
कठिनाइयाँ
उस पर होंगी अनन्त
(रचनाकाल : 14 फरवरी, 1932)