भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"भेड़ / तुलसी रमण" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=ढलान पर आदमी / तुलसी रमण | |संग्रह=ढलान पर आदमी / तुलसी रमण | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
<Poem> | <Poem> | ||
बुज़ुर्गों का कहना है | बुज़ुर्गों का कहना है | ||
पंक्ति 14: | पंक्ति 15: | ||
एक सछल, शरारती पुचकार के साथ, | एक सछल, शरारती पुचकार के साथ, | ||
करीब बुला लिया जाता है उसे | करीब बुला लिया जाता है उसे | ||
− | |||
और वह निरीह | और वह निरीह | ||
सहज चली आती है | सहज चली आती है | ||
+ | |||
बस | बस | ||
− | |||
सुविधाजनक ढंग से | सुविधाजनक ढंग से | ||
कैंची चलाकर | कैंची चलाकर | ||
ऊन उतार लो उसकी | ऊन उतार लो उसकी | ||
− | |||
और फिर से | और फिर से | ||
एक अर्से के लिये | एक अर्से के लिये | ||
ऊबड़-खाबड़ गहन निर्जन में | ऊबड़-खाबड़ गहन निर्जन में | ||
नंगा कर छोड़ दो | नंगा कर छोड़ दो | ||
− | |||
जहाँ रहते हैं | जहाँ रहते हैं | ||
असंख्य भेड़िये और | असंख्य भेड़िये और | ||
पंक्ति 39: | पंक्ति 37: | ||
पर निरीह भेड़ ठगी-सी | पर निरीह भेड़ ठगी-सी | ||
बस ऊन होती है | बस ऊन होती है | ||
− | या ख़ून। | + | या ख़ून। |
− | + | ||
</poem> | </poem> |
09:50, 26 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण
बुज़ुर्गों का कहना है
जब भेड़ मूंडनी हो
उससे पूछा नहीं जाता
दो चार हरी पत्तियां
रोटी का एक ग्रास
या चंद दाने दिखाकर
एक सछल, शरारती पुचकार के साथ,
करीब बुला लिया जाता है उसे
और वह निरीह
सहज चली आती है
बस
सुविधाजनक ढंग से
कैंची चलाकर
ऊन उतार लो उसकी
और फिर से
एक अर्से के लिये
ऊबड़-खाबड़ गहन निर्जन में
नंगा कर छोड़ दो
जहाँ रहते हैं
असंख्य भेड़िये और
भेड़िये के बच्चे
उसके ख़ून की ताक में
सिंहासन सजते हैं
भेड़ की ऊन से
राजतिलक भी होता है
भेड़ के खून से
पर निरीह भेड़ ठगी-सी
बस ऊन होती है
या ख़ून।