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"अब के बरस / पवन कुमार" के अवतरणों में अंतर

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जो गिरते हैं छतों पर

08:31, 27 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण

तमाम रात
वे क’तरे
जो गिरते हैं छतों पर
सूरज की चमकती किरनें
जिन्हें सफ़ेद सोना बना देती हैं
उनके जेवर पहन कर देखो।
वे तमाम ख़्वाब
जो सोते-जागते देखते हैं
या खुदा
सब के सब ताबीर हो जायें।
तमाम रिश्ते,
जो बेइंतहा खूबसूरत हो सकते थे
मगर वक्त ने
जिन्हें ज़र्द कर दिया।
तमाम सूरज
जो रोशनी बिखरा सकते थे
मगर कभी धुँध ने उन्हें ज़मीं पर आने न दिया,
वे सब चमकें,
ज’मीं पर उतरें,
ज’र्रों को चूमें-सहलायें
वाक’ए हादसे सदमों
से घिरी कायनात
फिर से हँसे मुस्कुराये,
खेतों में पीले हरे
रंग फिर चहकें
हर घर में गेहूँ चावल की गंध महके,
तमाम सियासी खेल जो मंदिर में
अज़ान नहीं होने देते
और
मस्जिद में दिया नहीं जलने देते
दौर-ए गुज़िश्ता की बात हो जायें
हर ओर खिले प्यार की फ’सलें
यही उम्मीद अब दिल में रख लें...
अब के बरस
हाँ अब के बरस।