भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हारे थके परिन्दों से कहती है शाम कुछ / ‘अना’ क़ासमी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='अना' क़ासमी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> ह...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
15:23, 8 मई 2013 के समय का अवतरण
हारे थके परिन्दों से कहती है शाम कुछ
सब कट चुके हैं पेड़ करो इन्तिज़ाम कुछ
सीने में एक हूक सी उठती है जब कभी
धोख़े से खा लिया था ज़रा सा ह़राम क़ुछ
कुछ तो किसी की बात में पड़ता नहीं हूँ मैं
रोके है इस ज़बाँ को तिरा एहतराम कुछ
पहले कभी कभार कहीं बैठते थे हम
हर शाम अब तो होने लगा एहतमाम कुछ
जाँ की अमान पाऊँ तो इक बात मैं कहूँ
तलवार ले चुके हैं तुम्हारे ग़ुलाम कुछ
मौक़ा महल को देख के बोला करो जनाब
रक्खा करो ज़बान में अपनी लगाम कुछ
किन बेवक़ूफियों में पड़े हो मियाँ ’’अना ’’
छोड़ो भी शायरी को करो काम धाम कुछ