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"फिर खिलखिला उठा किसी नादान की तरह / ‘अना’ क़ासमी" के अवतरणों में अंतर

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इक इक अदा में वो ही बहर वो ही बांकपन
 
इक इक अदा में वो ही बहर वो ही बांकपन
पढ़ता हँू उसको मीर के दीवान की तरह  
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पढ़ता हूँ उसको मीर के दीवान की तरह  
  
 
बातें हैं सर्दियों में उतरती है जैसे धूप
 
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संासें हैं गर्म रात के तूफ़ान की तरह
 
संासें हैं गर्म रात के तूफ़ान की तरह
  
कह दे कोई तो चैन से इक रात सो रहँू
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कह दे कोई तो चैन से इक रात सो रहँ
 
बैठा हूँ अपने घर में ही  मेहमान की तरह  
 
बैठा हूँ अपने घर में ही  मेहमान की तरह  
  

13:35, 11 मई 2013 के समय का अवतरण

फिर खिलखिला उठा किसी नादान की तरह
हँसने लगा है चाँद भी इंसान की तरह

इक इक अदा में वो ही बहर वो ही बांकपन
पढ़ता हूँ उसको मीर के दीवान की तरह

बातें हैं सर्दियों में उतरती है जैसे धूप
संासें हैं गर्म रात के तूफ़ान की तरह

कह दे कोई तो चैन से इक रात सो रहँ
बैठा हूँ अपने घर में ही मेहमान की तरह

है कितना होशियार समझ कर हरेक बात
रहता है हर मक़ाम पे नादान की तरह

मैं अपने रब से माँग रहा था किसी को और
क्यों आ गये हो बीच में शैतान की तरह