भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गर्मियों की यह तपिश भी चाँदनी हो जायेगी / ‘अना’ क़ासमी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='अना' क़ासमी |संग्रह=मीठी सी चुभन/ '...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

13:57, 14 मई 2013 के समय का अवतरण


गर्मियों की यह तपिश भी चाँदनी हो जायेगी
तुमसे मिल कर दोपहर भी शबनमी हो जायेगी

हमने रोका कब है उसको हाँ मगर इतना कहा
धूप में फिरती रही तो सांवली हो जायेगी

खिड़कियों से झांकने का फ़न उसे आ जायेगा
बेल कमरे में भी रह कर गर बड़ी हो जायेगी

हमको ही इस खेल में रग़बत नहीं वरना सुनो
कोई लड़की मेहरबां तो आज भी हो जायेगी

फिर किसी आवाज़ पर लब्बैक दिल ने कह दिया
बैठे-ठांढ़े फिर कोई आफत खड़ी हो जायेगी

ये हक़ीक़त की नहीं मिट्टी की हैं सब मूरतें
आप छू लेंगे जिसे वो आपकी हो जायेगी

है ख़ुदा ही मेहरबां वरना कभी सोचा न था
जान की दुश्मन थी जो वो ज़िन्दगी हो जायेगी

अपने घर रखनी थी हमको एक छोटी सी नशिस्त
चांद पर से आपकी कब वापसी हो जायेगी

पब्लिशर, नक़्क़ाद, बुकस्टाल सब उनके ही हैं
कुछ भी बक दें कुछ भी लिख दें शायरी हो जायेगी