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| पंक्ति 19: | 
पंक्ति 19: | 
|   | चपल तुरग की पीठ पर चाव-चढ़ी चित-मोहती।  |   | चपल तुरग की पीठ पर चाव-चढ़ी चित-मोहती।  | 
|   | या दिलीश उत्संग में है संयुक्ता सोहती।2।  |   | या दिलीश उत्संग में है संयुक्ता सोहती।2।  | 
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| − | शिशु-स्नेह
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| − | [छप्पै]
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| − | सहज सुन्दरी अति सुकुमारी भोली भाली।
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| − | गोरे मुखड़े, बड़ी बड़ी कल आँखों वाली।
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| − | खिले कमल पर लसे सेवारों से मन भाये।
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| − | खुले केश, जिसके सुकपोलों पर हैं छाये।
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| − | बहु-पलक-भरी मन-मोहिनी कुछ भौंहें बाँकी किये।
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| − | यह सरल बालिका कौन है अंक नवल बालक लिये।1।
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| − | खिली कमलिनी-अंक गुलाब कुसुम विकसा है।
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| − | या भोलापन परम सरलता-संग लसा है।
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| − | या विधि न्यारे करके कलित खिलौने ये हैं।
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| − | जो जन की युग आँखों पर करते टोने हैं।
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| − | या जीवन-तरु-रस-मूल के ये फल हैं प्यारे परम।
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| − | या प्रकृति-कोष कमनीय के ये हैं रत्न मनोज्ञतम।2।
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| − | अपना विकसित बदन बड़े चावों से रख कर।
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| − | खिले फूल से शिशु के सुन्दर मुखड़े ऊपर।
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| − | कौन अनूठा भाव बालिका है बतलाती।
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| − | कौन अनोखा दृश्य दृगों को है दिखलाती।
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| − | क्या सूचित करती है उन्हें, हैं भावुक जो भूमि पर।
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| − | ये युगल कलाधर हैं मिले उर कुमोद उत्फुल्ल कर।3।
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| − | युग शिशु-उर में प्यार-बीज अंकुरित नहीं है।
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| − | क्यों होता है विकच बदन यह विदित नहीं है।
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| − | किसी काल जब मिल जाते हैं दो प्यारे जन।
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| − | क्यों होता है मोद, विकस जाता है क्यों मन।
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| − | इस गूढ़ बात का मरम भी यदपि नहीं कुछ जानते।
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| − | हैं तदपि मुदित वे, हैं मनो मोद-सिंधु अवगाहते।4।
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| − | रविकर कोमल परस, कमल-कुल खिल जाता है।
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| − | पाकर ऋतु पति पवन रंग पादप लाता है।
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| − | क्या उनका है प्यार, मोद वे क्यों हैं पाते।
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| − | किस स्वाभाविक सूत्र से बँधो वे किस नाते।
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| − | यह सकल श्रीमती प्रकृति की परम अलौकिक है कला।
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| − | है बहु अंशों में प्राणि-उर एक रंग ही में ढला।5।
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| − | क्यों विकसित मुख देख, चित्ता है विकसित होता।
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| − | उर में क्यों उर सरस बहाता है रस-सोता।
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| − | क्यों बीणा बजकर है सरव सितार बनाती।
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| − | क्यों मृदंग-धवनि है पनवों में धवनि उपजाती।
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| − | इसमें नहिं अपर रहस्य है सकल हृदय है एक ही।
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| − | स्वर जैसे बीन सितार, औ पनव मृदंग जुदा नहीं।6।
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| − | हैं दोनों शिशु हृदयवान नेही हैं दोनों।
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| − | रत्न मनोहर एक खानि के ही हैं दोनों।
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| − | फिर क्यों उनका परम प्रेममय उर नहिं होगा।
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| − | देख एक को मुदित, अपर क्यों मुदित न होगा।
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| − | नव कली कुमुदिनी कान्त की जो विकास पाती नहीं।
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| − | तो क्या स्वाभाविक मंजुता उसमें सरसाती नहीं।7।
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| − | इन शिशुओं की प्रीति परम आनंद-पगी है।
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| − | अति विमला है लोकोत्तारता रंग-रँगी है।
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| − | भावमयी, रसमयी, रुचिर उच्छासमयी है।
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| − | दृग-विमोहिनी चित्तारंजिनी नित्य नयी है।
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| − | यह लोक-विकासिनि शक्ति के, कमल करों से है छुई।
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| − | यह वह अति प्यारी वस्तु है, स्वर्ग-सुधा जिसमें चुई।8।
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| − | इस सनेह में नहीं स्वार्थ की बू आती है।
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| − | कपट, बनावट नहिं प्रवेश इसमें पाती है।
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| − | छींटें इस पर पड़ी नहीं छल बल की होतीं।
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| − | चित-मलीनता नहिं इसकी निर्मलता खोती।
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| − | यह वह प्रमोद वन है, नहीं अनबन वायु जहाँ बही।
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| − | यह वह प्रसून है, उपजता कलह-कीट जिसमें नहीं।9।
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| − | क्यों कोमल किसलय हैं जी को बहुत लुभाते।
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| − | क्यों पशु के बच्चे तक हैं चित को विलसाते।
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| − | बाल-भाव है परम रम्य है बहु मुददाता।
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| − | आँखों-भर उसको लख कर है जग सुख पाता।
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| − | मानव कुल के ये शिशु-युगल अति सुन्दर प्यारों-पगे।
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| − | मन, नयन विमोहेंगे न क्यों, सहज भाव सच्चे सगे।10।
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