"बात की बात / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’" के अवतरणों में अंतर
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+ | जब हम अपने से ही अपनी बीती कहने लग जाते हैं। | ||
− | + | तन खोया-खोया-सा लगता मन उर्वर-सा हो जाता है | |
+ | कुछ खोया-सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है। | ||
− | + | लगता; सुख-दुख की स्मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूँ | |
+ | यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ | ||
+ | कवि की अपनी सीमाऍं है कहता जितना कह पाता है | ||
+ | कितना भी कह डाले, लेकिन-अनकहा अधिक रह जाता है | ||
− | + | यों ही चलते-फिरते मन में बेचैनी सी क्यों उठती है? | |
+ | बसती बस्ती के बीच सदा सपनों की दुनिया लुटती है | ||
− | + | जो भी आया था जीवन में यदि चला गया तो रोना क्या? | |
+ | ढलती दुनिया के दानों में सुधियों के तार पिरोना क्या? | ||
− | + | जीवन में काम हजारों हैं मन रम जाए तो क्या कहना! | |
+ | दौड़-धूप के बीच एक-क्षण, थम जाए तो क्या कहना! | ||
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+ | उससे ही सारा झगड़ा है जिसने विश्वास चुराया था | ||
+ | फिर भी सूनापन साथ रहा तो गति दूनी करनी होगी | ||
+ | साँचे के तीव्र-विवर्त्तन से मन की पूनी भरनी होगी | ||
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− | + | पथ में गुनने बैठूँगा तो जीना दूभर हो जाएगा। | |
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09:49, 17 मई 2013 के समय का अवतरण
इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे भी क्षण आ जाते हैं
जब हम अपने से ही अपनी बीती कहने लग जाते हैं।
तन खोया-खोया-सा लगता मन उर्वर-सा हो जाता है
कुछ खोया-सा मिल जाता है कुछ मिला हुआ खो जाता है।
लगता; सुख-दुख की स्मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूँ
यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ
कवि की अपनी सीमाऍं है कहता जितना कह पाता है
कितना भी कह डाले, लेकिन-अनकहा अधिक रह जाता है
यों ही चलते-फिरते मन में बेचैनी सी क्यों उठती है?
बसती बस्ती के बीच सदा सपनों की दुनिया लुटती है
जो भी आया था जीवन में यदि चला गया तो रोना क्या?
ढलती दुनिया के दानों में सुधियों के तार पिरोना क्या?
जीवन में काम हजारों हैं मन रम जाए तो क्या कहना!
दौड़-धूप के बीच एक-क्षण, थम जाए तो क्या कहना!
कुछ खाली खाली होगा ही जिसमें निश्वास समाया था
उससे ही सारा झगड़ा है जिसने विश्वास चुराया था
फिर भी सूनापन साथ रहा तो गति दूनी करनी होगी
साँचे के तीव्र-विवर्त्तन से मन की पूनी भरनी होगी
जो भी अभाव भरना होगा चलते-चलते भर जाएगा
पथ में गुनने बैठूँगा तो जीना दूभर हो जाएगा।