"रूपमय हृदय / रामचंद्र शुक्ल" के अवतरणों में अंतर
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19:43, 2 जून 2013 के समय का अवतरण
(1)
बहु नीहार-कल्पनाएँ बन,
रखता हैं वह सर्व सनातन।
रूप हृदयमय, हृदय रूपमय का अनंत अंबुधि उमड़ा हैं;
कहीं किसी चढ़ती तरंग पर शीर्षबिंदु बन उछल पड़ा हैं।
कह कर "क्या ही अकल कला हैं!"
प्रलय-निलय की ओर चला हैं।
(2)
विविध रूप-संगीत-नीत स्वर।
भीतर हृदय हमारे होकर।
भाव-सूत्रा शुभ खोल बाँटते हैं हमको दहने औ बाएँ।
'बँटते-बँटते चुक जाएँ हम, ये लेनेवाले रह जाएँ'।
गरज गरज कर बरस गया घन।
उमड़ चला जग में नवजीवन।
(3)
नवदल-गुंफित पुष्पहास यह!
शशिरेखा-सुस्मित-विभास यह!
नभ चुंबित नग-निविड़-नीलिमा उठी अवनि-उर की उमंग सी।
कलित-विरल-घनपटल-दिगंचल-प्रभा पुलकमय राग-रंग सी।
पांडुर धूम्र पुंज बहु खंडित;
कोर हिरण्य-मेखला-मंडित।
(4)
तिग्म ताप तिलमिली तिरोहित,
शीतलता संचरित समाहित,
दृग रंजन अंजन-घन-छाया हरे हरे लहलहे हर्ष पर।
निशा-नयन मीलित अरूपता असित असत छन हेतु छिन्नकर।
वज्र रेख-द्युति द्रुत उन्मीलन,
अक्षर रूपकला अनुशीलन।
(5)
चमक दमक कुछ नहीं जहाँ पर,
भोग-विभूति नहीं विस्मयकर,
रूप वहाँ के भी अंतस् में कोई प्रिय प्रसंग कहते हैं;
साहचर्य-स्रुत-स्निग्ध श्लेष रस सिक्त सदा लिपटे रहते हैं।
चमत्कार की चाह वाह पर,
नहीं चारुता उनकी निर्भर।
(6)
जीर्ण शीर्ण दीवार खड़ी हैं,
जिसमें कहीं दरार पड़ी हैं;
सटे नींव से धरे पीत पुट हैं घमोय के झाड़ कँटीले।
ठूँठी नीम तले कुछ बैठे धूल-धूसरे बाल हठीले।।
ये भी स्मृति-मधु में हैं गिरते,
लगी हुई आँखों में फिरते।
(7)
रूपों से तो परे हमारा,
हृदय नहीं हैं कभी पधारा,
और पधारेगा न कभी वह, जो चाहे सो पैर उभारे,
ज्ञान जाय, अज्ञान जाय, मतवाद जाय, बकवाद सिधारे।
अखिल व्यंजना को इस सुंदर।
छोडे क़ौन लक्षण कहकर?
(8)
ये ही रूप खेल कर मन में,
देशकाल के धुँधलेपन में,
नंदनवन बनकर ललचाते, अमर धाम की आहट लाते,
शोभा-शक्ति शीलमय प्रभु की लोकरंजनी कला दिखाते,
धन्य! धन्य! जगमंगल झाँकी
यह नारायणमय नरता की।
(9)
भव्य भावना-भवन हमारे,
रचित इन्हीं रूपों से सारे।
इनकी ही अनुभूति-भूति से विश्व मूर्ति मय योग जगेगा।
किंतु न किसी अरूप लोक से हृदय हमारा कभी लगेगा।
रसमय-रूप-रूपमय-रस धर
चलित चराचर चक्र निरंतर।
(10)
अत्याचार वेदना भारी
बढ़ती हैं तो बढे हमारी
मर लेंगे फिर कभी, अभी तो ऐसी कुछ हड़बड़ी नहीं हैं।
बढ़ती हैं वह धर्म शक्ति के दर्शन को जो यहीं कहीं हैं।
अमित पाप-संताप सने हैं
उत्कंठा में इसी बने हैं।
(11)
सिर पर के झोंकों से सारे,
छत्रा पत्रा छिन जाँये हमारे,
इस उत्कंठा में ही ठूँठी ठटरी तक हम खडे रहेंगे।
फूले फले हरे निज बीती प्रिय समीर से कभी कहेंगे।
आशा सुख की भाषा सुंदर
हास विलास रूप कुसुमाकर।
(12)
सचमुच ही यदि प्रेम कहीं हैं,
ज्ञात छोड़ वह कहीं नहीं हैं।
'लगा किसी अज्ञात क्षेत्र में, यह कहकर क्यों बात छिपाना।
यही ज्ञात 'सत' का प्रकाश हैं, 'चित' का भी हैं यही ठिकाना।।
यही सघन 'आनंद' घटा हैं।
यही अजस्र अदभ्र छटा हैं।
(13)
एक देशगत ध्वंस असत् हैं,
रूप कला विभु सत् शाश्वत हैं
प्रभु के रक्षामय स्वरूप में हैं 'सत' का संकेत सुभासित।
रुचिर लोकरंजन सुषमा में हैं 'आनंद' मोद अधिवासित।
काव्य-कलाधर 'सदानंद' मय
वाल्मीकि तुलसी जय जय जय।
(14)
सम्मुख सर्जन रक्षण, रंजन।
विमुख विलोपन, भक्षण, भंजन।
लोकनीति-बाधा-छाया में उभयमुखी यह कला छूटकर।
रोष-अमर्ष-समन्वित फूटी होकर कोमल करुण काव्य स्वर
क्रुद्ध प्रेममय उग्र अनुग्रह
दया दर्पमय द्रवण भयावह।