भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नव घरक ठेकान-पता / गंगेश गुंजन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गंगेश गुंजन |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} {{KKCatMaith...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
{{KKCatMaithiliRachna}}
 
{{KKCatMaithiliRachna}}
 
<poem>  
 
<poem>  
अन्हरिए जकाँ विचार
+
देखू अन्हरियाक आँचरमे
उतरबा-पसरबामे होइत अछि इमानदार
+
भरि आँजुर फूल सिंगरहार
एहन नहि होइत अछि जे ओ अपन भगजोगनी,
+
अनेरे मौला गेल
तरेगन, निःशब्द सन-सन स्वर कतहु अन्तः ध’ क’
+
सभ निफिकिर रहल
चलि अबैत अछि मनुक्खक एहि धरती पर
+
एते धरि जे लोक
नापरवाह बा चलाकीमे।
+
जेना हम स्वयं, अहाँ, क्यो
....पक्ष-विपक्षक लोकतांत्रिक चरित्र जकाँ
+
एहिना चुबैत रहत ओलतीसँ पानि
बँटैत-बाँटैत सन कहाँ अछि अन्हार जेना
+
खाम्ह लगक दीप
समस्त विधायिका-न्यायपालिका-कार्यपालिका,
+
फकफकाइत रहत मिझएबासँ पूर्व
अर्थात संसद-न्यायालय-मंत्रालय।
+
धपाएल अन्हार घेरि लेत चारू कात
...भरल धरतीक कोनो मानचित्रमे
+
घर ओसरा दलान
ने पवित्र अन्हार, ने पुण्यात्मा प्रकाश
+
क्यों नहि चिन्ता करत अहाँक लेल आन।
ने शुद्ध रातिक सन्नाटा
+
गीड़ल जाइत बेंग जकाँ अहाँक आसमर्द
ने दिनक कार्यान्दोलित ऊँच बजैत बजार
+
सभ सुननिहार रहत पंक्तिबद्ध साँप।
ने अखण्ड अभिप्राय जकाँ भाषा
+
चूल्हिमे सुस्ताइत रहत भोर-साँझ टोल भरिक कुकुर
ने शुद्ध हृदयक बोल
+
बाढ़िक धार जकाँ पसरल गेलए शत्रुक मुँह
ने ठीकसँ नगाड़ा, ने पूरा ढोल।
+
लागल फसिलक खेत धाँसिते गेल धूर-धूर।
.... भरि गाम पंचायत,
+
अमीनक पुरना जरीब (कड़ी) सँ नापल जाइत रहत
भरि प्रात, विधान सभा-परिषद्
+
अहाँक कोंढ़ अहाँक स्त्रीक करेज आ बेटाक मन-माटि।
भरि देश संसद, सभा
+
सौंसे समाज भोरे-भोरे भांगक दतमनि करैत रहत
समूचा सत्र धुपछाँही संवाद-प्रतिवाद
+
अमीनी नाप एहिना नपैत रहत, कपड़ा जकाँ फाड़ैत रहत
 
+
अहाँक विश्वास आ पौरूख
भरि देश गाँधी, देश भरि गुजरात।
+
चीरैत रहत गँहीर चौड़ा देवाल।
आखिर एना, ई की बात ?
+
दोषी अहीं। नहि त’ ओ। ओ नहि त’ हम
...जबर्दस्त मीडिया-माया
+
हम अहाँक नाम तक बिसरि गेलहुँ।
...दारूण कार्य-कलापमे
+
विपत्ति कोन नामे सोर पाडू ?
किएक एना-घोर मट्ठा
+
हमरा लोकनि सभ सभक नाम एहिना बिसरि गेल छी
किएक नहि किछु राफ-साफ
+
यद्यपि अहुँक जोबीमे होएत भरलो काठी दियासलाइ
के अछि कोम्हर
+
हमरो संगमे अगड़म-बगड़म जर्जर वस्तुजात
एम्हर कि ओम्हर
+
अहूँ अन्होरेमे बौआइत छी मुदा हमरा नहि कहै छी
बाम कि दहिन ठाढ़
+
हमहूँ इजोते लेल छटपटाइत छी मुदा अहाँकें नहि बजबै छी
साफ बुझा रहल अछि-अनदेखार
+
बीच मँहक वृद्ध प्रतितामहक नाम
दच्छिन एक रत्तीट  बामा दिस टगल
+
वटवृक्ष सभ धोधेरिसँ विषाह भ’ चुकल अछि
बाम टगल दहिना
+
आउ सभ मिलि एकरा डाहि दी।
मध्यमे विराजमान एक रत्तीी बामक
+
जे क्यो आबए अनावश्यक मात्सर्य देखाब’
भुक-भुक इजोत उजागर अछि-
+
ओकर मिथ्या गुमान मारि घुस्सासँ
दक्षिणक रंग बिरंगक अन्हार।
+
यथार्थमे ढाहि दी।
सोचैत छी, बड़ दिनसँ सोचैत छी
+
ठीक-ठीक कही तँ, पचीसमे बरखक वयससँ
+
सोचैत आबि रहल छी-
+
कोनो तेहन बड़का लग्गी होइत
+
मेघमे लगा क’ झखा लितहुँ जामुन गाछी जकाँ
+
समस्त राति
+
मनुक्खक विचार भेल, दुस्सह अन्हारमे पर्यंत
+
एखनहुँ देखार
+
...प्रज्जवलित दू-तीन-चारि रंगक फकफाइत
+
संपूर्ण अस्तित्वकें, झाँपि क’ क’ दिअए अस्तित्वशेष
+
लोकक आँखि-मन आ माथमे
+
कतहु ने गड़ए चक्कू कि भाला जकाँ
+
नहि करए शोनिते शोनिताम
+
गोधरा ने हमरा गाम।
+
 
</poem>
 
</poem>

07:52, 4 जून 2013 के समय का अवतरण

 
देखू अन्हरियाक आँचरमे
भरि आँजुर फूल सिंगरहार
अनेरे मौला गेल
सभ निफिकिर रहल
एते धरि जे लोक
जेना हम स्वयं, अहाँ, क्यो
एहिना चुबैत रहत ओलतीसँ पानि
खाम्ह लगक दीप
फकफकाइत रहत मिझएबासँ पूर्व
धपाएल अन्हार घेरि लेत चारू कात
घर ओसरा दलान
क्यों नहि चिन्ता करत अहाँक लेल आन।
गीड़ल जाइत बेंग जकाँ अहाँक आसमर्द
सभ सुननिहार रहत पंक्तिबद्ध साँप।
चूल्हिमे सुस्ताइत रहत भोर-साँझ टोल भरिक कुकुर
बाढ़िक धार जकाँ पसरल गेलए शत्रुक मुँह
लागल फसिलक खेत धाँसिते गेल धूर-धूर।
अमीनक पुरना जरीब (कड़ी) सँ नापल जाइत रहत
अहाँक कोंढ़ अहाँक स्त्रीक करेज आ बेटाक मन-माटि।
सौंसे समाज भोरे-भोरे भांगक दतमनि करैत रहत
अमीनी नाप एहिना नपैत रहत, कपड़ा जकाँ फाड़ैत रहत
अहाँक विश्वास आ पौरूख
चीरैत रहत गँहीर चौड़ा देवाल।
दोषी अहीं। नहि त’ ओ। ओ नहि त’ हम
हम अहाँक नाम तक बिसरि गेलहुँ।
विपत्ति कोन नामे सोर पाडू ?
हमरा लोकनि सभ सभक नाम एहिना बिसरि गेल छी
यद्यपि अहुँक जोबीमे होएत भरलो काठी दियासलाइ
हमरो संगमे अगड़म-बगड़म जर्जर वस्तुजात
अहूँ अन्होरेमे बौआइत छी मुदा हमरा नहि कहै छी
हमहूँ इजोते लेल छटपटाइत छी मुदा अहाँकें नहि बजबै छी
आ बीच मँहक वृद्ध प्रतितामहक नाम
वटवृक्ष सभ धोधेरिसँ विषाह भ’ चुकल अछि
आउ सभ मिलि एकरा डाहि दी।
जे क्यो आबए अनावश्यक मात्सर्य देखाब’
ओकर मिथ्या गुमान मारि घुस्सासँ
यथार्थमे ढाहि दी।