"कबीर दोहावली / पृष्ठ ९" के अवतरणों में अंतर
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+ | कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय । | ||
+ | राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥ | ||
− | + | दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि । | |
− | + | तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥ | |
− | दुनिया | + | दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग । |
− | + | एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥ | |
− | + | यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास । | |
− | + | कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥ | |
− | यह तन काँचा कुंभ है, | + | यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय । |
− | + | एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥ | |
− | + | जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय । | |
− | + | ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥ | |
− | + | मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान । | |
− | + | टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥ | |
− | + | महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय । | |
− | + | ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥ | |
− | + | ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय । | |
− | + | कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥ | |
− | + | कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम । | |
− | + | कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥ | |
− | कुल करनी के कारने, | + | कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय । |
− | कुल | + | तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥ |
− | + | मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास । | |
− | + | मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥ | |
− | + | ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर । | |
− | + | ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥ | |
− | + | इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ । | |
− | + | करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥ | |
− | + | जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र । | |
− | + | जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥ | |
− | + | मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय । | |
− | + | मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥ | |
− | + | मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय । | |
− | + | अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥ | |
− | + | दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ । | |
− | + | पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥ | |
− | + | तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय । | |
− | + | प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥ | |
− | + | या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि । | |
− | + | चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥ | |
− | + | तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय । | |
− | + | कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥ | |
− | + | डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार । | |
− | + | डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥ | |
− | + | भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय । | |
− | + | भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥ | |
− | भय | + | भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति । |
− | भय | + | जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥ |
− | + | काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात । | |
− | + | सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥ | |
− | + | बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत । | |
− | + | तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥ | |
− | + | एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं । | |
− | + | घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥ | |
− | + | बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ । | |
− | + | एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥ | |
− | + | यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार । | |
− | + | आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥ | |
− | + | खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद । | |
− | + | बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥ | |
− | + | चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात । | |
− | + | मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥ | |
− | + | विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद । | |
− | + | अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥ | |
− | + | हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर । | |
− | + | सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥ | |
− | हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर । | + | |
− | सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥ | + | |
− | मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल । | + | मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल । |
− | जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥ | + | जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥ |
− | परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान । | + | परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान । |
− | घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥ | + | घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥ |
− | जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार । | + | जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार । |
− | जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥ | + | जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥ |
− | क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज । | + | क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज । |
− | छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥ | + | छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥ |
− | जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग । | + | जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग । |
− | सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥ | + | सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥ |
− | कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं । | + | कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं । |
− | ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥ | + | ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥ |
− | जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध । | + | जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध । |
− | माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥ | + | माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥ |
− | अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान । | + | अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान । |
− | ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥ | + | ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥ |
− | नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह । | + | नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह । |
− | जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥ | + | जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥ |
− | मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर । | + | मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर । |
− | अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥ | + | अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥ |
− | मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय । | + | मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय । |
− | मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥ | + | मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥ |
− | एक बून्द के कारने, रोता सब संसार । | + | एक बून्द के कारने, रोता सब संसार । |
− | अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥ | + | अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥ |
− | समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान । | + | समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान । |
− | गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥ | + | गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥ |
− | राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान । | + | राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान । |
− | पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥ | + | पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥ |
− | मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार । | + | मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार । |
− | सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥ | + | सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥ |
− | चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय । | + | चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय । |
− | तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥ | + | तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥ |
− | क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ । | + | क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ । |
− | पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥ | + | पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥ |
− | आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान । | + | आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान । |
− | सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥ | + | सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥ |
− | ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार । | + | ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार । |
− | कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥ | + | कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥ |
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+ | ॥ काल के विषय मे दोहे ॥ | ||
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− | + | जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय । | |
− | + | सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥ | |
− | + | कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय । | |
− | + | जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥ | |
− | + | झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद । | |
− | + | जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥ | |
− | + | काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय । | |
− | कहैं कबीर | + | कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥ |
− | + | निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय । | |
− | + | कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 857 ॥ | |
− | + | जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय । | |
− | + | जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥ | |
− | + | कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय । | |
− | + | जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥ | |
− | + | जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त । | |
− | + | दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥ | |
− | + | बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और । | |
− | + | बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥ | |
− | + | यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर । | |
− | + | बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर । |
− | + | तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात । |
− | + | न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥ | |
− | + | कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल । | |
− | + | मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥ | |
− | + | धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल । | |
− | + | हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ॥ 866 ॥ | |
− | + | आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल । | |
− | + | मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार । | |
− | + | खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥ | |
− | + | चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार । | |
− | + | सबही यह तन देखता, काल ले गया मात ॥ 868 ॥ | |
− | + | हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल । | |
− | + | ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥ | |
− | + | काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त । | |
− | + | ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥ | |
− | + | हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय । | |
− | + | ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥ | |
− | + | संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर । | |
− | + | जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥ | |
+ | बालपना भोले गया, और जुवा महमंत । | ||
+ | वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥ | ||
− | + | बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल । | |
− | + | आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥ | |
− | |||
− | |||
− | + | ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार । | |
− | + | दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 875 ॥ | |
− | + | खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय । | |
− | + | घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥ | |
− | + | घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान । | |
− | + | छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 877 ॥ | |
− | जारि | + | संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि । |
− | + | काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥ | |
− | + | ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय । | |
− | + | जारि बारि कोयला करे, जमते देखा सोय ॥ 879 ॥ | |
− | + | जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार । | |
− | + | कहैं कबीर कोइला करै, फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥ | |
− | + | काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय । | |
− | + | काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥ | |
− | + | पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ । | |
− | + | हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥ | |
− | सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश । | + | फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय । |
+ | जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥ | ||
+ | |||
+ | मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर । | ||
+ | स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥ | ||
+ | |||
+ | सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश । | ||
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥ | सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥ | ||
− | कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ । | + | कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ । |
− | जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥ | + | जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥ |
− | जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय । | + | जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय । |
− | सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥ | + | सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥ |
− | काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान । | + | काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान । |
− | कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥ | + | कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥ |
− | काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय । | + | काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय । |
− | जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 889 ॥ | + | जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 889 ॥ |
॥ उपदेश ॥ <BR/><BR/> | ॥ उपदेश ॥ <BR/><BR/> |
09:53, 13 जून 2013 के समय का अवतरण
कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय ।
राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि ।
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग ।
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास ।
कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय ।
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान ।
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय ।
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।
कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय ।
तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास ।
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥
ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर ।
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥
इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ ।
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र ।
जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय ।
मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥
मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय ।
अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥
दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥
तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय ।
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥
या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि ।
चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।
डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय ।
भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति ।
जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात ।
सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।
आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद ।
बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात ।
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल ।
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज ।
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर ।
अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय ।
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान ।
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार ।
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।
तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ ।
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान ।
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥
॥ काल के विषय मे दोहे ॥
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय ।
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय ।
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।
जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय ।
कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय ।
कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 857 ॥
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय ।
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय ।
जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त ।
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥
बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और ।
बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥
यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर ।
बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर ।
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥
कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात ।
न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल ।
मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥
धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल ।
हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ॥ 866 ॥
आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल ।
मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥
चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार ।
खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥
चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार ।
सबही यह तन देखता, काल ले गया मात ॥ 868 ॥
हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल ।
ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥
काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त ।
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥
हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय ।
ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।
जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥
बालपना भोले गया, और जुवा महमंत ।
वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल ।
आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥
ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार ।
दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 875 ॥
खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय ।
घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान ।
छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 877 ॥
संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि ।
काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥
ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय ।
जारि बारि कोयला करे, जमते देखा सोय ॥ 879 ॥
जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार ।
कहैं कबीर कोइला करै, फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥
काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय ।
काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥
पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ ।
हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥
फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय ।
जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥
मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर ।
स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश ।
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥
कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ ।
जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय ।
सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥
काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान ।
कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय ।
जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 889 ॥
॥ उपदेश ॥
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।
भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।
अनबोवे लुनता नहीं, बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥
लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान ।
कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान ॥ 892 ॥
खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम ।
चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ॥ 893 ॥
खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान ।
लेना होय सो लेई ले, यही गोय मैदान ॥ 894 ॥
गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह ।
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥
देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह ।
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह ॥ 896 ॥
कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह ।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह ।
बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक ।
कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय ।
साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥
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