|सारणी=दोहावली / कबीर
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सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।
कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥
सेवक सेवा में रहैअनराते सुख सोवना, सेवक कहिये सोय राते नींद न आय । <BR/>कहैं कबीर सेवा बिनायों जल छूटी माछरी, सेवक कभी न होय तलफत रैन बिहाय ॥ 701 702 ॥ <BR/><BR/>
अनराते सुख सोवनायह मन ताको दीजिये, राते नींद न आय साँचा सेवक होय । <BR/>यों जल छूटी माछरीसिर ऊपर आरा सहै, तलफत रैन बिहाय तऊ न दूजा होय ॥ 702 703 ॥ <BR/><BR/>
यह मन ताको दीजियेगुरु आज्ञा मानै नहीं, साँचा सेवक होय चलै अटपटी चाल । <BR/>सिर ऊपर आरा सहैलोक वेद दोनों गये, तऊ न दूजा होय आये सिर पर काल ॥ 703 704 ॥ <BR/><BR/>
गुरु आज्ञा मानै नहींआशा करै बैकुण्ठ की, चलै अटपटी चाल दुरमति तीनों काल । <BR/>लोक वेद दोनों गयेशुक्र कही बलि ना करीं, आये सिर पर काल ताते गयो पताल ॥ 704 705 ॥ <BR/><BR/>
आशा करै बैकुण्ठ कीद्वार थनी के पड़ि रहे, दुरमति तीनों काल धका धनी का खाय । <BR/>शुक्र कही बलि ना करींकबहुक धनी निवाजि है, ताते गयो पताल जो दर छाड़ि न जाय ॥ 705 706 ॥ <BR/><BR/>
द्वार थनी उलटे सुलटे बचन के पड़ि रहे, धका धनी का खाय शीष न मानै दुख । <BR/>कबहुक धनी निवाजि हैकहैं कबीर संसार में, जो दर छाड़ि न जाय सो कहिये गुरुमुख ॥ 706 707 ॥ <BR/><BR/>
उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख । <BR/>कहैं कबीर संसार मेंगुरु प्रेम बस, सो कहिये गुरुमुख क्या नियरै क्या दूर । जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 707 708 ॥ <BR/><BR/>
कहैं कबीर गुरु प्रेम बसआज्ञा लै आवही, क्या नियरै क्या दूर गुरु आज्ञा लै जाय । <BR/>जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 708 709 ॥ <BR/><BR/>
गुरुमुख गुरु आज्ञा लै आवहीचितवत रहे, गुरु आज्ञा लै जाय जैसे मणिहि भुजंग । <BR/>कहैं कबीर सो सन्त प्रियबिसरे नहीं, बहु विधि अमृत पाय यह गुरु मुख के अंग ॥ 709 710 ॥ <BR/><BR/>
गुरुमुख गुरु चितवत रहेयह सब तच्छन चितधरे, जैसे मणिहि भुजंग अप लच्छन सब त्याग । <BR/>कहैं कबीर बिसरे नहींसावधान सम ध्यान है, यह गुरु मुख के अंग चरनन में लाग ॥ 710 711 ॥ <BR/><BR/>
यह सब तच्छन चितधरेज्ञानी अभिमानी नहीं, अप लच्छन सब त्याग काहू सो हेत । <BR/>सावधान सम ध्यान हैसत्यवार परमारथी, गुरु चरनन में लाग आदर भाव सहेत ॥ 711 712 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञानी अभिमानी नहींदया और धरम का ध्वजा, सब काहू सो हेत धीरजवान प्रमान । <BR/>सत्यवार परमारथीसन्तोषी सुख दायका, आदर भाव सहेत सेवक परम सुजान ॥ 712 713 ॥ <BR/><BR/>
दया और धरम का ध्वजाशीतवन्त सुन ज्ञान मत, धीरजवान प्रमान अति उदार चित होय । <BR/>सन्तोषी सुख दायकालज्जावान अति निछलता, सेवक परम सुजान कोमल हिरदा सोय ॥ 713 714 ॥ <BR/><BR/>
शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय । <BR/>लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 दासता पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
॥ दासता पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।
तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥
कबीर गुरु कै भावतेसबको चहै, दूरहि ते दीसन्त गुरु को चहै न कोय । <BR/>तन छीना मन अनमनाजब लग आश शरीर की, जग से रूठि फिरन्त तब लग दास न होय ॥ 715 716 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु सबको चहैसुख दुख सिर ऊपर सहै, गुरु को चहै कबहु न कोय छोड़े संग । <BR/>जब लग आश शरीर की, तब लग दास रंग न होय लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 716 717 ॥ <BR/><BR/>
सुख दुख गुरु समरथ सिर ऊपर सहैपर खड़े, कबहु न छोड़े संग कहा कभी तोहि दास । <BR/>रंग रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग छोड़े पास ॥ 717 718 ॥ <BR/><BR/>
गुरु समरथ सिर पर खड़ेलगा रहै सत ज्ञान सो, कहा कभी तोहि दास सबही बन्धन तोड़ । <BR/>रिद्धि-सिद्धि सेवा करैकहैं कबीर वा दास सो, मुक्ति न छोड़े पास काल रहै हथजोड़ ॥ 718 719 ॥ <BR/><BR/>
लगा रहै सत ज्ञान सोकाहू को न संतापिये, सबही बन्धन तोड़ जो सिर हन्ता होय । <BR/>कहैं कबीर वा दास सोफिर फिर वाकूं बन्दिये, काल रहै हथजोड़ दास लच्छन है सोय ॥ 719 720 ॥ <BR/><BR/>
काहू को न संतापियेदास कहावन कठिन है, जो सिर हन्ता होय मैं दासन का दास । <BR/>फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 720 721 ॥ <BR/><BR/>
दास कहावन कठिन हैदासातन हिरदै बसै, मैं दासन का दास साधुन सो अधीन । <BR/>अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 721 722 ॥ <BR/><BR/>
दासातन हिरदै बसैनहीं, साधुन सो अधीन नाम धरावै दास । <BR/>कहैं कबीर सो दास हैपानी के पीये बिना, प्रेम भक्ति लवलीन कैसे मिटै पियास ॥ 722 723 ॥ <BR/><BR/>
दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास । <BR/>पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 भक्ति पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
॥ भक्ति पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।
भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥
भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त । <BR/>भक्ति जु न्यारी भेष सेऊँच-नीच धर अवतरै, यह जनै सब कोय होय सन्त का अन्त ॥ 724 725 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय । <BR/>ऊँच-नीच धर अवतरैसरिता सोई सराहिये, होय सन्त का अन्त जेठ मास ठहराय ॥ 725 726 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति भाव भादौं नदीजु सीढ़ी मुक्ति की, सबै चली घहराय चढ़े भक्त हरषाय । <BR/>सरिता सोई सराहियेऔर न कोई चढ़ि सकै, जेठ मास ठहराय निज मन समझो आय ॥ 726 727 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति दुहेली गुरुन की, चढ़े भक्त हरषाय नहिं कायर का काम । <BR/>और न कोई चढ़ि सकैसीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज मन समझो आय धाम ॥ 727 728 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति दुहेली गुरुन कीपदारथ तब मिलै, नहिं कायर का काम जब गुरु होय सहाय । <BR/>सीस उतारे हाथ सोंप्रेम प्रीति की भक्ति जो, ताहि मिलै निज धाम पूरण भाग मिलाय ॥ 728 729 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति पदारथ तब मिलैभेष बहु अन्तरा, जब गुरु होय सहाय जैसे धरनि अकाश । <BR/>प्रेम प्रीति की भक्ति जोभक्त लीन गुरु चरण में, पूरण भाग मिलाय भेष जगत की आश ॥ 729 730 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु की भक्ति भेष बहु अन्तराकरूँ, जैसे धरनि अकाश तज निषय रस चौंज । <BR/>भक्त लीन गुरु चरण मेंबार-बार नहिं पाइये, भेष जगत मानुष जन्म की आश मौज ॥ 730 731 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु की भक्ति करूँदुवारा साँकरा, तज निषय रस चौंज राई दशवें भाय । <BR/>बार-बार नहिं पाइयेमन को मैगल होय रहा, मानुष जन्म की मौज कैसे आवै जाय ॥ 731 732 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति दुवारा साँकराबिना नहिं निस्तरे, राई दशवें भाय लाख करे जो कोय । <BR/>मन को मैगल शब्द सनेही होय रहारहे, कैसे आवै जाय घर को पहुँचे सोय ॥ 732 733 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति बिना नहिं निस्तरेनसेनी मुक्ति की, लाख करे जो कोय संत चढ़े सब धाय । <BR/>शब्द सनेही होय रहेजिन-जिन आलस किया, घर को पहुँचे सोय जनम जनम पछिताय ॥ 733 734 ॥ <BR/><BR/>
गुरु भक्ति नसेनी मुक्ति कीअति कठिन है, संत चढ़े सब धाय ज्यों खाड़े की धार । <BR/>जिन-जिन आलस कियाबिना साँच पहुँचे नहीं, जनम जनम पछिताय महा कठिन व्यवहार ॥ 734 735 ॥ <BR/><BR/>
गुरु भाव बिना नहिं भक्ति अति कठिन हैजग, ज्यों खाड़े की धार । <BR/>भक्ति बिना साँच पहुँचे नहींभाव । भक्ति भाव इक रूप है, महा कठिन व्यवहार दोऊ एक सुभाव ॥ 735 736 ॥ <BR/><BR/>
भाव बिना नहिं कबीर गुरु की भक्ति जगका, भक्ति बिना नहीं भाव मन में बहुत हुलास । <BR/>भक्ति भाव इक रूप मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है, दोऊ एक सुभाव दास ॥ 736 737 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु की भक्ति काबिन, मन में बहुत हुलास धिक जीवन संसार । <BR/>मन मनसा माजै नहींधुवाँ का सा धौरहरा, होन चहत है दास बिनसत लगै न बार ॥ 737 738 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु की भक्ति बिनजाति बरन कुल खोय के, धिक जीवन संसार भक्ति करै चितलाय । <BR/>धुवाँ का सा धौरहराकहैं कबीर सतगुरु मिलै, बिनसत लगै न बार आवागमन नशाय ॥ 738 739 ॥ <BR/><BR/>
जाति बरन कुल खोय के, देखा देखी भक्ति करै चितलाय का, कबहुँ न चढ़ सी रंग । <BR/>कहैं कबीर सतगुरु मिलैबिपति पड़े यों छाड़सी, आवागमन नशाय केचुलि तजत भुजंग ॥ 739 740 ॥ <BR/><BR/>
देखा देखी आरत है गुरु भक्ति काकरूँ, कबहुँ न चढ़ सी रंग सब कारज सिध होय । <BR/>बिपति पड़े यों छाड़सीकरम जाल भौजाल में, केचुलि तजत भुजंग भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 740 741 ॥ <BR/><BR/>
आरत है गुरु जब लग भक्ति करूँसकाम है, सब कारज सिध होय तब लग निष्फल सेव । <BR/>करम जाल भौजाल मेंकहैं कबीर वह क्यों मिलै, भक्त फँसे नहिं कोय निहकामी निजदेव ॥ 741 742 ॥ <BR/><BR/>
जब लग पेटे में भक्ति सकाम हैकरै, तब लग निष्फल सेव ताका नाम सपूत । <BR/>कहैं कबीर वह क्यों मिलैमायाधारी मसखरैं, निहकामी निजदेव लेते गये अऊत ॥ 742 743 ॥ <BR/><BR/>
पेटे में निर्पक्षा की भक्ति करैहै, ताका नाम सपूत निर्मोही को ज्ञान । <BR/>मायाधारी मसखरैंनिरद्वंद्वी की भक्ति है, लेते गये अऊत निर्लोभी निर्बान ॥ 743 744 ॥ <BR/><BR/>
निर्पक्षा की भक्ति हैतिमिर गया रवि देखते, निर्मोही को मुमति गयी गुरु ज्ञान । <BR/>निरद्वंद्वी की सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति है, निर्लोभी निर्बान गयी अभिमान ॥ 744 745 ॥ <BR/><BR/>
तिमिर गया रवि देखतेखेत बिगारेउ खरतुआ, मुमति गयी गुरु ज्ञान सभा बिगारी कूर । <BR/>सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 745 746 ॥ <BR/><BR/>
खेत बिगारेउ खरतुआज्ञान सपूरण न भिदा, सभा बिगारी कूर हिरदा नाहिं जुड़ाय । <BR/>देखा देखी भक्ति बिगारी लालचीका, ज्यों केसर में घूर रंग नहीं ठहराय ॥ 746 747 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञान सपूरण न भिदाभक्ति पन्थ बहुत कठिन है, हिरदा नाहिं जुड़ाय रती न चालै खोट । <BR/>देखा देखी भक्ति निराधार काखोल है, रंग नहीं ठहराय अधर धार की चोट ॥ 747 748 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति पन्थ बहुत कठिन भक्तन की यह रीति है, रती न चालै खोट बंधे करे जो भाव । <BR/>निराधार का खोल है, अधर धार की चोट परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 748 749 ॥ <BR/><BR/>
भक्तन की यह रीति भक्ति महल बहु ऊँच है, बंधे करे जो भाव दूरहि ते दरशाय । <BR/>परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 749 750 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति महल बहु ऊँच और कर्म सब कर्म है, दूरहि ते दरशाय भक्ति कर्म निहकर्म । <BR/>जो कोई जन भक्ति करेकहैं कबीर पुकारि के, शोभा बरनि न जाय भक्ति करो तजि भर्म ॥ 750 751 ॥ <BR/><BR/>
और कर्म सब कर्म विषय त्याग बैराग है, भक्ति कर्म निहकर्म समता कहिये ज्ञान । <BR/>कहैं कबीर पुकारि केसुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति करो तजि भर्म परमान ॥ 751 752 ॥ <BR/><BR/>
विषय त्याग बैराग हैभक्ति निसेनी मुक्ति की, समता कहिये ज्ञान संत चढ़े सब आय । <BR/>सुखदाई सब जीव सोंनीचे बाधिनि लुकि रही, यही भक्ति परमान कुचल पड़े कू खाय ॥ 752 753 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े भक्ति सब आय कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । <BR/>नीचे बाधिनि लुकि रहीपूरण भक्ति जब मिलै, कुचल पड़े कू खाय कृपा करे गुरुदेव ॥ 753 754 ॥ <BR/><BR/>
भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव । <BR/>पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 चेतावनी ॥ <BR/><BR/>
॥ चेतावनी ॥ <BR/><BR/>
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।
हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥
कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ऊँचा देखि अवास । <BR/>हयबर ऊपर छत्रवटकाल परौं भुंइ लेटना, तो भी देवैं गाड़ ऊपर जमसी घास ॥ 755 756 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास इस जीवन की आस । <BR/>काल परौं भुंइ लेटनाटेसू फूला दिवस दस, ऊपर जमसी घास खंखर भया पलास ॥ 756 757 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस काल गहे कर केस । <BR/>टेसू फूला दिवस दसना जानो कित मारि हैं, खंखर भया पलास कसा घर क्या परदेस ॥ 757 758 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गर्ब न कीजियेमन्दिर लाख का, काल गहे कर केस जाड़िया हीरा लाल । <BR/>ना जानो कित मारि हैंदिवस चारि का पेखना, कसा घर क्या परदेस विनशि जायगा काल ॥ 758 759 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन्दिर लाख काधूल सकेलि के, जाड़िया हीरा लाल पुड़ी जो बाँधी येह । <BR/>दिवस चारि चार का पेखना, विनशि जायगा काल अन्त खेह की खेह ॥ 759 760 ॥ <BR/><BR/>
कबीर धूल सकेलि केथोड़ा जीवना, पुड़ी जो बाँधी येह माढ़ै बहुत मढ़ान । <BR/>दिवस चार का पेखनासबही ऊभ पन्थ सिर, अन्त खेह की खेह राव रंक सुल्तान ॥ 760 761 ॥ <BR/><BR/>
कबीर थोड़ा जीवनानौबत आपनी, माढ़ै बहुत मढ़ान दिन दस लेहु बजाय । <BR/>सबही ऊभ पन्थ सिरयह पुर पटृन यह गली, राव रंक सुल्तान बहुरि न देखहु आय ॥ 761 762 ॥ <BR/><BR/>
कबीर नौबत आपनीगर्ब न कीजिये, दिन दस लेहु बजाय जाम लपेटी हाड़ । <BR/>यह पुर पटृन यह गलीइस दिन तेरा छत्र सिर, बहुरि न देखहु आय देगा काल उखाड़ ॥ 762 763 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गर्ब न कीजियेयह तन जात है, जाम लपेटी हाड़ सकै तो ठोर लगाव । <BR/>इस दिन तेरा छत्र सिरकै सेवा करूँ साधु की, देगा काल उखाड़ कै गुरु के गुन गाव ॥ 763 764 ॥ <BR/><BR/>
कबीर यह तन जात जो दिन आज है, सकै तो ठोर लगाव सो दिन नहीं काल । <BR/>कै सेवा करूँ साधु कीचेति सकै तो चेत ले, कै गुरु के गुन गाव मीच परी है ख्याल ॥ 764 765 ॥ <BR/><BR/>
कबीर जो दिन आज हैखेत किसान का, सो दिन नहीं काल मिरगन खाया झारि । <BR/>चेति सकै तो चेत लेखेत बिचारा क्या करे, मीच परी है ख्याल धनी करे नहिं बारि ॥ 765 766 ॥ <BR/><BR/>
कबीर खेत किसान कायह संसार है, मिरगन खाया झारि जैसा सेमल फूल । <BR/>खेत बिचारा क्या करेदिन दस के व्यवहार में, धनी करे नहिं बारि झूठे रंग न भूल ॥ 766 767 ॥ <BR/><BR/>
कबीर यह संसार हैसपनें रैन के, जैसा सेमल फूल ऊधरी आये नैन । <BR/>दिन दस के व्यवहार जीव परा बहू लूट में, झूठे रंग जागूँ लेन न भूल देन ॥ 767 768 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सपनें रैन केजन्त्र न बाजई, ऊधरी आये नैन टूटि गये सब तार । <BR/>जीव परा बहू लूट मेंजन्त्र बिचारा क्याय करे, जागूँ लेन न देन गया बजावन हार ॥ 768 769 ॥ <BR/><BR/>
कबीर जन्त्र न बाजईरसरी पाँव में, टूटि गये सब तार कहँ सोवै सुख-चैन । <BR/>जन्त्र बिचारा क्याय करेसाँस नगारा कुँच का, गया बजावन हार बाजत है दिन-रैन ॥ 769 770 ॥ <BR/><BR/>
कबीर रसरी पाँव मेंनाव तो झाँझरी, कहँ सोवै सुख-चैन भरी बिराने भाए । <BR/>साँस नगारा कुँच काकेवट सो परचै नहीं, बाजत है दिन-रैन क्यों कर उतरे पाए ॥ 770 771 ॥ <BR/><BR/>
कबीर नाव तो झाँझरीपाँच पखेरूआ, भरी बिराने भाए राखा पोष लगाय । <BR/>केवट सो परचै नहींएक जु आया पारधी, क्यों कर उतरे पाए लइ गया सबै उड़ाय ॥ 771 772 ॥ <BR/><BR/>
कबीर पाँच पखेरूआबेड़ा जरजरा, राखा पोष लगाय कूड़ा खेनहार । <BR/>एक जु आया पारधीहरूये-हरूये तरि गये, लइ गया सबै उड़ाय बूड़े जिन सिर भार ॥ 772 773 ॥ <BR/><BR/>
कबीर बेड़ा जरजराएक दिन ऐसा होयगा, कूड़ा खेनहार सबसों परै बिछोह । <BR/>हरूये-हरूये तरि गयेराजा राना राव एक, बूड़े जिन सिर भार सावधान क्यों नहिं होय ॥ 773 774 ॥ <BR/><BR/>
एक दिन ऐसा होयगाढोल दमामा दुरबरी, सबसों परै बिछोह सहनाई संग भेरि । <BR/>राजा राना राव एकऔसर चले बजाय के, सावधान क्यों नहिं होय है कोई रखै फेरि ॥ 774 775 ॥ <BR/><BR/>
ढोल दमामा दुरबरीमरेंगे मरि जायँगे, सहनाई संग भेरि कोई न लेगा नाम । <BR/>औसर चले बजाय केऊजड़ जाय बसायेंगे, है कोई रखै फेरि छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 775 776 ॥ <BR/><BR/>
मरेंगे मरि जायँगेकबीर पानी हौज की, कोई न लेगा नाम देखत गया बिलाय । <BR/>ऊजड़ जाय बसायेंगेऐसे ही जीव जायगा, छेड़ि बसन्ता गाम काल जु पहुँचा आय ॥ 776 777 ॥ <BR/><BR/>
कबीर पानी हौज कीगाफिल क्या करे, देखत गया बिलाय आया काल नजदीक । <BR/>ऐसे ही जीव जायगाकान पकरि के ले चला, काल जु पहुँचा आय ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 777 778 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गाफिल क्या करेकै खाना कै सोवना, आया काल नजदीक और न कोई चीत । <BR/>कान पकरि के ले चलासतगुरु शब्द बिसारिया, ज्यों अजियाहि खटीक आदि अन्त का मीत ॥ 778 779 ॥ <BR/><BR/>
कै खाना कै सोवनाहाड़ जरै जस लाकड़ी, और न कोई चीत केस जरै ज्यों घास । <BR/>सतगुरु शब्द बिसारियासब जग जरता देखि करि, आदि अन्त का मीत भये कबीर उदास ॥ 779 780 ॥ <BR/><BR/>
हाड़ जरै जस लाकड़ीआज काल के बीच में, केस जरै ज्यों घास जंगल होगा वास । <BR/>सब जग जरता देखि करिऊपर ऊपर हल फिरै, भये कबीर उदास ढोर चरेंगे घास ॥ 780 781 ॥ <BR/><BR/>
आज काल के बीच मेंऊजड़ खेड़े टेकरी, जंगल होगा वास धड़ि धड़ि गये कुम्हार । <BR/>ऊपर ऊपर हल फिरैरावन जैसा चलि गया, ढोर चरेंगे घास लंका का सरदार ॥ 781 782 ॥ <BR/><BR/>
ऊजड़ खेड़े टेकरीपाव पलक की सुधि नहीं, धड़ि धड़ि गये कुम्हार करै काल का साज । <BR/>रावन जैसा चलि गयाकाल अचानक मारसी, लंका का सरदार ज्यों तीतर को बाज ॥ 782 783 ॥ <BR/><BR/>
पाव पलक की सुधि नहींआछे दिन पाछे गये, करै काल का साज गुरु सों किया न हैत । <BR/>काल अचानक मारसीअब पछितावा क्या करे, ज्यों तीतर को बाज चिड़िया चुग गई खेत ॥ 783 784 ॥ <BR/><BR/>
आछे दिन पाछे गयेआज कहै मैं कल भजूँ, गुरु सों किया न हैत काल फिर काल । <BR/>अब पछितावा क्या करेआज काल के करत ही, चिड़िया चुग गई खेत औसर जासी चाल ॥ 784 785 ॥ <BR/><BR/>
आज कहै मैं कल भजूँकहा चुनावै मेड़िया, काल फिर काल चूना माटी लाय । <BR/>आज काल के करत हीमीच सुनेगी पापिनी, औसर जासी चाल दौरि के लेगी आय ॥ 785 786 ॥ <BR/><BR/>
कहा चुनावै मेड़ियासातों शब्द जु बाजते, चूना माटी लाय घर-घर होते राग । <BR/>मीच सुनेगी पापिनीते मन्दिर खाले पड़े, दौरि के लेगी आय बैठने लागे काग ॥ 786 787 ॥ <BR/><BR/>
सातों शब्द जु बाजतेऊँचा महल चुनाइया, घर-घर होते राग सुबरदन कली ढुलाय । <BR/>ते वे मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग रहै मसाना जाय ॥ 787 788 ॥ <BR/><BR/>
ऊँचा महल चुनाइयामन्दिर मेड़िया, सुबरदन चला कली ढुलाय । <BR/>वे मन्दिर खाले पड़ेएकहिं गुरु के नाम बिन, रहै मसाना जदि तदि परलय जाय ॥ 788 789 ॥ <BR/><BR/>
ऊँचा मन्दिर मेड़ियादीसे धौहरा, चला कली ढुलाय भागे चीती पोल । <BR/>एकहिं एक गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय जम मरेंगे रोज ॥ 789 790 ॥ <BR/><BR/>
ऊँचा दीसे धौहरापाव पलक तो दूर है, भागे चीती पोल मो पै कहा न जाय । <BR/>एक गुरु के नाम बिनना जानो क्या होयगा, जम मरेंगे रोज पाव के चौथे भाय ॥ 790 791 ॥ <BR/><BR/>
पाव पलक तो दूर हैमौत बिसारी बाहिरा, मो पै कहा न जाय अचरज कीया कौन । <BR/>ना जानो क्या होयगामन माटी में मिल गया, पाव के चौथे भाय ज्यों आटा में लौन ॥ 791 792 ॥ <BR/><BR/>
मौत बिसारी घर रखवाला बाहिरा, अचरज कीया कौन चिड़िया खाई खेत । <BR/>मन माटी में मिल गयाआधा परवा ऊबरे, ज्यों आटा में लौन चेति सके तो चेत ॥ 792 793 ॥ <BR/><BR/>
घर रखवाला बाहिराहाड़ जले लकड़ी जले, चिड़िया खाई खेत जले जलवान हार । <BR/>आधा परवा ऊबरेअजहुँ झोला बहुत है, चेति सके तो चेत घर आवै तब जान ॥ 793 794 ॥ <BR/><BR/>
हाड़ जले लकड़ी जलेपकी हुई खेती देखि के, जले जलवान हार गरब किया किसान । <BR/>अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 795 ॥ <BR/><BR/>
पकी हुई खेती देखि केपाँच तत्व का पूतरा, गरब किया किसान मानुष धरिया नाम । <BR/>अजहुँ झोला बहुत हैदिना चार के कारने, घर आवै तब जान फिर-फिर रोके ठाम ॥ 795 796 ॥ <BR/><BR/>
पाँच तत्व का पूतराकहा चुनावै मेड़िया, मानुष धरिया नाम लम्बी भीत उसारि । <BR/>दिना चार के कारनेघर तो साढ़े तीन हाथ, फिर-फिर रोके ठाम घना तो पौने चारि ॥ 796 797 ॥ <BR/><BR/>
कहा चुनावै मेड़ियायह तन काँचा कुंभ है, लम्बी भीत उसारि लिया फिरै थे साथ । <BR/>घर तो साढ़े तीन हाथटपका लागा फुटि गया, घना तो पौने चारि कछु न आया हाथ ॥ 797 798 ॥ <BR/><BR/>
यह तन काँचा कुंभ हैकहा किया हम आपके, लिया फिरै थे साथ कहा करेंगे जाय । <BR/>टपका लागा फुटि गया, कछु इत के भये न आया हाथ ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 798 799 ॥ <BR/><BR/>
कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय । <BR/>इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥ <BR/><BR/> जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि । <BR/>जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥ <BR/><BR/> {{KKPageNavigation|पीछे=कबीर दोहावली / पृष्ठ ७ |आगे=[[कबीर दोहावली / पृष्ठ ९ |सारणी=दोहावली / कबीर}}अगला भाग >>]]