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− | सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । | + | {{KKGlobal}} |
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+ | सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । | ||
+ | तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ | ||
− | हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । | + | हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । |
− | मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ | + | मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ |
− | कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । | + | कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । |
− | पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ | + | पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥ |
− | कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । | + | कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई । |
− | सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ | + | सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥ |
− | त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ । | + | त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ । |
− | जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ | + | जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥ |
− | कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ । | + | कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ । |
− | सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ | + | सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥ |
− | कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । | + | कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ । |
− | सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ | + | सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥ |
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− | कबीर | + | कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि । |
− | + | सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥ | |
− | + | कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास । | |
− | + | पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ 309 ॥ | |
− | + | बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक । | |
− | + | और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥ | |
− | + | कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह । | |
− | + | जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥ | |
− | + | माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ । | |
− | + | मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥ | |
− | + | करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड । | |
− | + | जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥ | |
− | + | कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ । | |
− | + | बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥ | |
− | + | मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग । | |
− | + | राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥ | |
− | + | पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद । | |
− | + | सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥ | |
− | + | जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल । | |
− | + | पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 317 ॥ | |
− | + | काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ । | |
− | + | दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥ | |
− | + | प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच । | |
− | + | तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥ | |
− | + | सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । | |
− | + | जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥ | |
− | + | खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून । | |
− | + | देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥ | |
− | + | साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ । | |
− | + | जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥ | |
− | + | तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय । | |
− | + | कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥ | |
− | + | जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास । | |
− | + | सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥ | |
− | + | जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम । | |
− | + | राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥ | |
− | + | कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ । | |
− | + | हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥ | |
− | + | मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि । | |
− | + | दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥ | |
− | + | मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम । | |
− | + | वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥ | |
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− | + | मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ । | |
− | + | साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥ | |
− | + | कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ । | |
− | + | दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥ | |
− | + | उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान । | |
− | + | धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥ | |
− | + | जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग । | |
− | + | पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥ | |
− | + | जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु । | |
− | राम | + | ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥ |
− | कबीर | + | कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै । |
− | + | नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥ | |
− | कबीरा | + | कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम । |
− | + | राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥ | |
− | माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । | + | कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । |
+ | जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥ | ||
+ | |||
+ | कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई । | ||
+ | जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥ | ||
+ | |||
+ | माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई । | ||
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥ | ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥ | ||
− | मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । | + | मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ । |
− | कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ | + | कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥ |
+ | |||
+ | हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत । | ||
+ | ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥ | ||
+ | काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार । | ||
+ | बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥ | ||
+ | |||
+ | पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण । | ||
+ | पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥ | ||
+ | |||
+ | आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति । | ||
+ | जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥ | ||
− | + | कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ । | |
− | + | विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग । | |
− | + | कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥ | |
− | + | मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि । | |
− | + | जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥ | |
− | + | मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ । | |
− | + | पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥ | |
− | + | एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ । | |
− | + | राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 357 ॥ | |
− | + | कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ । | |
− | + | ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥ | |
− | + | जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि । | |
− | + | एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥ | |
− | + | कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ । | |
− | + | इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥ | |
− | + | बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत । | |
− | + | आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥ | |
− | + | कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस । | |
− | + | ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥ | |
− | + | नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ । | |
− | + | गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ ॥ 363 ॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं । | |
− | + | एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥ | |
− | + | कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट । | |
− | + | घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥ | |
− | + | मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि । | |
− | + | कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर माला मन की, और संसारी भेष । |
− | + | माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥ | |
− | + | माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ । | |
− | + | मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥ | |
− | + | कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार । | |
− | + | मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥ | |
− | माला | + | माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ । |
− | + | माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥ | |
− | + | बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक । | |
− | + | छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥ | |
− | + | स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि । | |
− | + | जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥ | |
− | + | चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात । | |
− | + | एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार । | |
− | + | अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥ | |
− | + | कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर । | |
− | + | रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥ | |
− | + | सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत । | |
− | + | लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥ | |
− | + | गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह । | |
− | + | कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥ | |
− | + | निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह । | |
− | + | विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥ | |
− | + | जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ । | |
− | + | जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥ | |
− | + | काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि । | |
− | + | कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥ | |
− | + | राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई । | |
− | + | तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥ | |
− | राम | + | पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ । |
− | + | चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥ | |
− | + | फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई । | |
− | + | जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥ | |
− | + | हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि । | |
− | + | तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥ | |
− | + | जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं । | |
− | + | ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥ | |
− | + | कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास । | |
− | + | जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥ | |
− | + | क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान । | |
− | + | वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥ | |
− | + | काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम । | |
− | + | मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥ | |
− | + | दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि । | |
− | + | सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥ | |
− | + | कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि । | |
− | + | यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ । |
− | + | अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥ | |
− | + | भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग । | |
− | + | भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥ | |
− | + | रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ । | |
− | + | दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥ | |
− | + | कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ । | |
− | + | हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥ | |
− | + | मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई । | |
− | + | कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥ | |
− | + | मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह । | |
− | + | ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥ | |
− | + | संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ । | |
− | + | साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥ | |
− | + | कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत । | |
− | + | काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥ | |
− | कबीर | + | कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ । |
− | + | पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥ | |
− | + | जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द । | |
− | + | कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥ | |
− | + | [[कबीर दोहावली / पृष्ठ ५|अगला भाग >>]] | |
− | + |
09:54, 13 जून 2013 के समय का अवतरण
सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।
तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥
हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।
मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥
कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥
कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥
त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।
जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥
कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ ।
सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ ।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥
कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥
कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास ।
पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ 309 ॥
बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक ।
और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह ।
जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥
माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ ।
मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥
करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड ।
जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥
कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।
बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥
मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग ।
राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥
पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥
जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल ।
पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 317 ॥
काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ ।
दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥
प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच ।
तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।
जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥
खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून ।
देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥
साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ ।
जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥
तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय ।
कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥
जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास ।
सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥
जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम ।
राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥
कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ ।
हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।
दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥
मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम ।
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥
मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।
साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥
कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ ।
दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥
उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान ।
धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥
जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग ।
पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥
जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु ।
ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥
कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।
नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥
कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम ।
राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥
कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।
जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥
कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई ।
जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥
माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई ।
ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥
मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।
कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥
हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।
ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥
काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार ।
बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥
पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥
आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।
जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥
कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ ।
विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥
कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥
मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥
मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥
एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ ।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 357 ॥
कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ ।
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥
जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥
कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥
बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥
कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस ।
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥
नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ ।
गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ ॥ 363 ॥
उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं ।
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥
कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट ।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥
मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि ।
कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥
कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।
माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥
माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ ।
मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥
कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार ।
मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥
माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।
माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥
बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।
छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥
स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि ।
जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥
चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।
एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥
एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार ।
अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥
कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर ।
रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥
सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।
लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥
गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।
कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥
निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥
जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ ।
जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥
काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।
कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥
राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई ।
तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥
पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।
चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥
फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई ।
जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥
हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि ।
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥
जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।
ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥
कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास ।
जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥
क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान ।
वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥
काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥
दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥
कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥
कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥
रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥
कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥
मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।
कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥
मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।
साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥
कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥
कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥
जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥
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