भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आग की लपटों में था मकान मेरा / निश्तर ख़ानक़ाही" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निश्तर ख़ानक़ाही }} {{KKCatGhazal}} <poem> न मिल ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 25: पंक्ति 25:
 
किसे ख़तूत लिखूं, हाले-दिल सुनाउँ किसे
 
किसे ख़तूत लिखूं, हाले-दिल सुनाउँ किसे
 
न कोई हर्फ़-शनासा* न हमज़माब* मेरा
 
न कोई हर्फ़-शनासा* न हमज़माब* मेरा
 
+
</poem>
 
1- खुद-अज़ीयती--अपने आप को कष्ट देना
 
1- खुद-अज़ीयती--अपने आप को कष्ट देना
  

19:27, 2 जुलाई 2013 के समय का अवतरण

न मिल सका कहीं ढूँढ़े से भी निशान मेरा
तमाम रात भटकता रहा गुमान मेरा

मैं घर बसा के समुंदर के बीच सोया था
उठा तो आग की लपटों में था मकान मेरा

जुनून न कहिए इसे, खुद-अज़ीयती* कहिए
बदन तमाम हुआ है लहू-लुहान मेरा

हवाएं गर्द की सूरत उड़ा रही हैं मुझे
न अब ज़मीं ही मेरी है, न आसमान मेरा

धमक कहीं हो, लरज़ती हैं खिड़कियां मेरी
घटा कहीं हो, टपकता है सायबाँ मेरा

मुसीबतों के भँवर में पुकारते हैं मुझे
अजीब दोस्त हैं, लेते हैं इम्तिहान मेरा

किसे ख़तूत लिखूं, हाले-दिल सुनाउँ किसे
न कोई हर्फ़-शनासा* न हमज़माब* मेरा

1- खुद-अज़ीयती--अपने आप को कष्ट देना

2- हर्फ़-शनासा--अक्षर ज्ञाता

3- हमज़माब--सहभाषी