भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"चांद का कुर्ता / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" | |रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर" | ||
− | }}{{KKAnthologyChand}} | + | }} |
+ | {{KKAnthologyChand}} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
− | + | {{KKPrasiddhRachna}} | |
+ | {{KKCatBaalKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
एक बार की बात, चंद्रमा बोला अपनी माँ से | एक बार की बात, चंद्रमा बोला अपनी माँ से | ||
पंक्ति 10: | पंक्ति 12: | ||
नंगे तन बारहों मास मैं यूँ ही घूमा करता | नंगे तन बारहों मास मैं यूँ ही घूमा करता | ||
गर्मी, वर्षा, जाड़ा हरदम बड़े कष्ट से सहता." | गर्मी, वर्षा, जाड़ा हरदम बड़े कष्ट से सहता." | ||
+ | |||
माँ हँसकर बोली, सिर पर रख हाथ, | माँ हँसकर बोली, सिर पर रख हाथ, | ||
चूमकर मुखड़ा | चूमकर मुखड़ा |
16:53, 3 जुलाई 2013 का अवतरण
एक बार की बात, चंद्रमा बोला अपनी माँ से
"कुर्ता एक नाप का मेरी, माँ मुझको सिलवा दे
नंगे तन बारहों मास मैं यूँ ही घूमा करता
गर्मी, वर्षा, जाड़ा हरदम बड़े कष्ट से सहता."
माँ हँसकर बोली, सिर पर रख हाथ,
चूमकर मुखड़ा
"बेटा खूब समझती हूँ मैं तेरा सारा दुखड़ा
लेकिन तू तो एक नाप में कभी नहीं रहता है
पूरा कभी, कभी आधा, बिलकुल न कभी दिखता है"
"आहा माँ ! फिर तो हर दिन की मेरी नाप लिवा दे
एक नहीं पूरे पंद्रह तू कुर्ते मुझे सिला दे."