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"परंपरा / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर

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जो जीवित है,
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जो जीवित है
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जीवन दायक है
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ध्वसं से बचा रखने लयक है |
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पानी का छिछला होकर
 
पानी का छिछला होकर
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यह क्रंनति का नाम  है |
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पानी को गहरा बनाना
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यह परम्परा का नाम है
  
पंरपरा और क्रंनति में
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संघषऋ चलने दो |
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आग लगि है, तो
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आग लगी है, तो
सूखि डालो को जलने दो|
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सूखी डालों को जलने दो
  
 
मगर जो डालें
 
मगर जो डालें
आज भी हरि है ,
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आज भी हरी हैं
उनपर तो तरस खाओ|
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उन पर तो तरस खाओ
मेरि एक बात तुमा मान लो |
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मेरी एक बात तुम मान लो
  
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लोगों की आस्था के आधार
टुट जाते है,
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टुट जाते है
उखडे हुए पेड़ो के समान
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उखड़े हुए पेड़ो के समान
वे अपनि ज़डो से छुट जाते है|
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वे अपनी जड़ों से छूट जाते है
  
परुमपरा जब लुपत होति हैं
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परम्परा जब लुप्त होती है
सभयता अकेलेपन के
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सभ्यता अकेलेपन के
दर्द मे मरति है|
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दर्द मे मरती है
कलमे लगना जानते हो,
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कलमें लगना जानते हो
तो जरुर लगाओ,
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तो जरुर लगाओ
मगर ऐसी कि फ़लो मे
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मगर ऐसी कि फलो में
अपनि मिट्टी का सवाद रहे|
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अपनी मिट्टी का स्वाद रहे
  
 
और ये बात याद रहे
 
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वह न तो हिन्दू है, ना मुसलिम </poem>
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वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम
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10:30, 6 जुलाई 2013 का अवतरण

परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है

पानी का छिछला होकर
समतल में दौड़ना
यह क्रांति का नाम है
लेकिन घाट बांध कर
पानी को गहरा बनाना
यह परम्परा का नाम है

परम्परा और क्रांति में
संघर्ष चलने दो
आग लगी है, तो
सूखी डालों को जलने दो

मगर जो डालें
आज भी हरी हैं
उन पर तो तरस खाओ
मेरी एक बात तुम मान लो

लोगों की आस्था के आधार
टुट जाते है
उखड़े हुए पेड़ो के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते है

परम्परा जब लुप्त होती है
सभ्यता अकेलेपन के
दर्द मे मरती है
कलमें लगना जानते हो
तो जरुर लगाओ
मगर ऐसी कि फलो में
अपनी मिट्टी का स्वाद रहे

और ये बात याद रहे
परम्परा चीनी नहीं मधु है
वह न तो हिन्दू है, ना मुस्लिम