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+ | फिर हाथ नहीं आयेगी | ||
+ | हाथों से फिसल जायेगी। | ||
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15:15, 13 जुलाई 2013 के समय का अवतरण
इक औरत
जो दिखती है
या बनती है
वह कभी बनना
नहीं चाहती
भूमिकाओं में बंधना
नहीं चाहती
उसके ज़मीर को
जज़ीरों में बाँधकर
पुरजोर कोशिश की जाती है
कि वह बने औरत
बस खालिस औरत
भूमिकाओं में बंधा
उसका मन
रोता है
चक्की के पाटों में पिसा
लड़ती है वह अपने से हज़ार बार
रोती है ढोंग पर
धिक्कारती है वह
अपने औरतपन को---
मेरी मानो,
उसे एक बार छोड़ के देखो
उतारने दो उसे
अपने भेंड़ के चोले को
फिर देखो
कि वह बहती नदी है
एक बार वह गयी तो
फिर हाथ नहीं आयेगी
हाथों से फिसल जायेगी।