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"इसी तरह से ये काँटा निकाल देते हैं / द्विजेन्द्र 'द्विज'" के अवतरणों में अंतर
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हम अपने दर्द को ग़ज़लों में ढाल देते हैं | हम अपने दर्द को ग़ज़लों में ढाल देते हैं |
10:50, 29 जुलाई 2013 के समय का अवतरण
इसी तरह से ये काँटा निकाल देते हैं
हम अपने दर्द को ग़ज़लों में ढाल देते हैं
हमारी नींदों में अक्सर जो डालती हैं ख़लल
वो ऐसी बातों को दिल से निकाल देते हैं
हमारे कल की ख़ुदा जाने शक़्ल क्या होगी
हर एक बात को हम कल पे टाल देते हैं
कहीं दिखे ही नहीं गाँवों में वो पेड़ हमें
बुज़ुर्ग साये की जिनके मिसाल देते हैं
कमाल ये है वो गोहरशनास हैं ही नहीं
जो इक नज़र में समंदर खंगाल देते है
वो सारे हादसे हिम्मत बढ़ा गए ‘द्विज’ की
कि जिनके साये ही दम-ख़म पिघाल देते हैं