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"पहाड़ों के मरुस्थल में / रति सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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1.
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सुना तुमने?
 +
पाहुने आए हैं तुम्हारे दरवाजे
 +
और तुम
 +
निसंग, उचाट, निपाट
 +
यूँ ही बैठे रहोगे?
 +
या फिर
 +
तनिक पानी दोगे
 +
देखो मेरे पाँव पड़पड़ा उठे हैं
 +
धूल से
  
1.<br>
+
2.
सुना तुमने?<br>
+
नहीं,
पाहुने आए हैं तुम्हारे दरवाजे<br>
+
नहीं सुना  
और तुम<br>
+
या फिर सुन कर
निसंग, उचाट, निपाट <br>
+
कर दिया अनसुना
यूँ ही बैठे रहोगे ?<br>
+
उन्होंने॔
या फिर <br>
+
"निपट पाहन जो हो
तनिक पानी दोगे<br>
+
यदि हरी होती एक भी शिरा
देखो मेरे पाँव पड़पड़ा उठे हैं <br>
+
बैठे रहते क्यों इस तरह?"
धूल से<br><br>
+
मैंने गुस्से को नहीं रोका
 +
फिर ?
 +
आँधी का अट्टहास
 +
कुछ बून्दें
 +
"लेह में बरसात
 +
वह भी इस मौसम में?"
  
 +
अचंभित थे लोग
 +
बस मैं नहीं!
  
2.<br>
+
3.
नहीं, <br>
+
समझ नहीं पा रही
नहीं सुना <br>
+
इतने सवेरे
या फिर सुन कर<br>
+
किसने जड़ दिए
कर दिया अनसुना<br>
+
बेमौसन चुम्बन
उन्होंने॔<br>
+
तुम्हारे चेहरे पर
"निपट पाहन जो हो<br>
+
कल रात तो तुम
यदि हरी होती एक भी शिरा<br>
+
झक थे सफेद रुई की तरह
बैठे रहते क्यों इस तरह?"<br>
+
आज इतने नीले क्यों??
मैंने गुस्से को नहीं रोका<br>
+
फिर ?<br>
+
आँधी का अट्टहास<br>
+
कुछ बून्दें <br>
+
" लेह में बरसात<br>
+
वह भी इस मौसम में?"<br><br>
+
  
अचंभित थे लोग<br>
+
क्यों तुम्हारा चेहरा
बस मैं नहीं!<br><br>
+
दिपदिपा गया है
 +
गोम्फा में बैठे देवता की तरह
  
3.<br>
+
तुमने कहाँ दी दावत
समझ नहीं पा रही<br>
+
मैंने ही डाल दिया डेरा
इतने सवेरे<br>
+
तुम्हारे घर की दहलीज के भीतर
किसने जड़ दिए<br>
+
अवधूतों, जरा चिलम तो बुझाओ
बेमौसन चुम्बन<br>
+
तुम्हारे चेहरे पर<br>
+
कल रात तो तुम<br>
+
झक थे सफेद रुई की तरह<br>
+
आज इतने नीले क्यों??<br><br>
+
  
क्यों तुम्हारा चेहरा<br>
+
4.
दिपदिपा गया है<br>
+
किसे थामे है यह
गोम्फा में बैठे देवता की तरह<br><br>
+
स्टीयरिंग या बाँसुरी?
 +
कार दौड़ रही है
 +
तुम्हारी छाती पर
 +
गीली धुन सी
 +
यह
 +
तुम्हे पूजता है
 +
पूजता है गोम्फा मे बैठे  
 +
सभी देवताओ को
 +
फिर भी पहाड़ों
 +
यह चालक, तुम्हारी सन्तति
 +
धड़ल्ले से चढ़ा आ रहा है
 +
तुम्हारे रोम रहित सीने पर
  
तुमने कहाँ दी दावत<br>
+
रोकोगे?
मैंने ही डाल दिया डेरा <br>
+
तुम्हारे घर की दहलीज के भीतर<br>
+
अवधूतों, जरा चिलम तो बुझाओ<br><br>
+
  
 +
आज की साँझ
 +
कौन पकाएगा खीर
 +
खिलाएगा कौन?
 +
मुस्कराओ नहीं
 +
मैं कोई सुजाता नहीं
 +
तुम चाहे लामा हो
 +
अपने देवता के
  
4.<br>
+
5.
किसे थामे है यह <br>
+
उसे पता नहीं
स्टीयरिंग या बाँसुरी?<br>
+
वह भिक्षुक है
कार दौड़ रही है<br>
+
पता नहीं उसे कि वह लामा है
तुम्हारी छाती पर<br>
+
फिर भी
गीली धुन सी<br>
+
लाल चोगे के नीचे से
यह<br>
+
लात चलाता हुआ
तुम्हे पूजता है <br>
+
कुंगफुंग की मुद्रा में
पूजता है गोम्फा मे बैठे<br>
+
अपने साथी से खिलवाड़ करता है
सभी देवताओ को<br>
+
तो वह बस गिलहरी होता है
फिर भी पहाड़ों<br>
+
कभी खरगोश
यह चालक , तुम्हारी सन्तति<br>
+
कभी चीता तो
धड़ल्ले से चढ़ा आ रहा है<br>
+
कभी पेड़ की टहनी से
तुम्हारे रोम रहित सीने पर<br><br>
+
झाँकता सूखा पत्ता
  
रोकोगे?<br><br>
+
उस बचपन के कानों में
 +
फुसफुसाते हैं बड़े लोग
 +
लामा हो, लामा हो, लामा हो
  
आज की साँझ<br>
+
घर का अन्तिम बच्चा
कौन पकाएगा खीर <br>
+
गोम्फा की भेंट चढ़ गया
खिलाएगा कौन?<br>
+
मुस्कराओ नहीं<br>
+
मैं कोई सुजाता नहीं<br>
+
तुम चाहे लामा हो <br>
+
अपने देवता के<br><br>
+
  
 +
6.
 +
" इसे मून लैण्ड कहते हैं"
 +
नवाँग छेरिंग कहता है
 +
तो फिर चाँद वैसा नहीं जैसा कि
 +
मुझे दिखता है?
 +
उदयपुर की झील में
 +
काँसे की थाली सा तैरता
 +
नारियल के दरख्तों में
 +
उलझा सा
 +
बादलों से झगड़ता सा
  
5.<br>
+
तो फिर  
उसे पता नहीं <br>
+
ऐसा होगा चाँद?
वह भिक्षुक है<br>
+
सूखे भूरे
पता नहीं उसे कि वह लामा है<br>
+
पहाड़ों से लटके लोथड़ों सा
फिर भी<br>
+
दरख्त सी खड़ी बाँबियों सा
लाल चोगे के नीचे से <br>
+
अनघड़ आकृतियों सा
लात चलाता हुआ<br>
+
कुंगफुंग की मुद्रा में<br>
+
अपने साथी से खिलवाड़ करता है<br>
+
तो वह बस गिलहरी होता है<br>
+
कभी खरगोश<br>
+
कभी चीता तो <br>
+
कभी पेड़ की टहनी से<br>
+
झाँकता सूखा पत्ता <br><br>
+
  
उस बचपन के कानों में<br>
+
कैसा भी हो,
फुसफुसाते हैं बड़े लोग<br>
+
कितना करीब आ गया है चाँद
लामा हो, लामा हो, लामा हो<br><br>
+
बिल्कुल मेरी एड़ी के नीचे
  
 +
आज पहली बार लगा
 +
कि मैं भी चाँद हूँ
 +
भूसर लोथड़ों और
 +
बाँबियों से सजी
  
घर का अन्तिम बच्चा<br>
+
7.
गोम्फा की भेंट चढ़ गया<br><br>
+
किस कदर घेरे
 +
बैठे हो अवधूतों
 +
तनिक सरकों
 +
देखो मेरा दम घुट रहा है
 +
बदन नीला हो गया
 +
तुम्हारे उच्छ्वासों ने मुझे
 +
घुमा दिया है घाटी में भुनगे सा
 +
तुम्हारे पेशानी पर बल क्यों?
 +
नीली नसें इतनी उभरी क्यों?
 +
देखा मैं बिखर गई
 +
बरफ बन
 +
तुम्हारे बदन पर
 +
फिर मत कहना कि
 +
इतनी जलन क्यों
  
 +
जरा सरकों
 +
रुक रही है मेरी साँस
 +
फूँक तो मार दो
 +
मेरे सीने में
  
6.<br>
+
8.
" इसे मून लैण्ड कहते हैं"<br>
+
"जुले"
नवाँग छेरिंग कहता है<br>
+
वह कहती है
तो फिर चाँद वैसा नहीं जैसा कि<br>
+
मुस्कुराट का दूसरा नाम होगा जुले
मुझे दिखता है?<br>
+
या फिर बेहद कम में सन्तोष का
उदयपुर की झील में<br>
+
"जुले"
काँसे की थाली सा तैरता<br>
+
शलजम , गाजर , सूखी खुबानी के बीच
नारियल के दरख्तों में <br>
+
जुले लाल हो उठा है
उलझा सा<br>
+
बादलों से झगड़ता सा<br><br>
+
  
तो फिर <br>
+
कोई छटपटाहट नहीं
ऐसा होगा चाँद? <br>
+
सब्जी बेचने की
सूखे भूरे <br>
+
कोई जल्दबाजी नहीं
पहाड़ों से लटके लोथड़ों सा<br>
+
पैसा कमाने की
दरख्त सी खड़ी बाँबियों सा<br>
+
न बिके सब्जी, "जुले" तो है
अनघड़ आकृतियों सा<br><br>
+
  
कैसा भी हो, <br>
+
उसने फिर कहा
कितना करीब आ गया है चाँद<br>
+
"जुले"
बिल्कुल मेरी एड़ी के नीचे<br><br>
+
इस बार सब बोल उठे
 +
पहाड़, दिशाएँ, गोम्फा
 +
"जुले..जुले"
 +
मेरे होंठों ने कहा "जुले"
 +
मेरी जीभ ने कहा "जुले"
 +
मेरे गालों पर चिपक गई
 +
देवता की मुस्कान
  
आज पहली बार लगा <br>
+
जुले जुले
कि मैं भी चाँद हूँ<br>
+
भूसर लोथड़ों और<br>
+
बाँबियों से सजी<br><br>
+
  
7.<br>
+
अब जब भी मैं होती हूँ उदास
किस कदर घेरे <br>
+
अपने आपसे कहती हूँ
बैठे हो अवधूतों<br>
+
जुले..जुले
तनिक सरकों<br>
+
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+
बदन नीला हो गया<br>
+
तुम्हारे उच्छ्वासों ने मुझे <br>
+
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+
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+
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+
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+
  
जरा सरकों <br>
+
9.
रुक रही है मेरी साँस<br>
+
मैंने दखल नहीं दी थी
फूँक तो मार दो<br>
+
दाखिल किया मुझे
मेरे सीने में<br><br>
+
तुम्हारे अपनों ने
  
 +
उँचे और उँचे
 +
चलते जाओ
 +
मीठे और मीठे
 +
बनते जाओ
 +
शान्ति की चाहत है तो
 +
कटते जाओ, कटते जाओ
 +
जमीन से, बाजार से,
 +
लोगों से,
  
8.<br>
+
"पहाड़ की चोटियों पर बने
"जुले"<br>
+
घौंसले से टंगे गोम्फा
वह कहती है<br>
+
खींचते हैं मुझे
मुस्कुराट का दूसरा नाम होगा जुले<br>
+
फिर पोत देते हैं
या फिर बेहद कम में सन्तोष का<br>
+
रंग मिला मक्खन
"जुले"<br>
+
मेरे राक्षसी चेहरे पर
शलजम , गाजर , सूखी खुबानी के बीच<br>
+
चीखते चिल्लाते लामा
जुले लाल हो उठा है<br><br>
+
फैंक देते हैं घाटियों में
 +
मैं फिर से तैयार हूँ
 +
आदमजात बनने के लिए"
 +
फुसफुसा कर कहा था मुझ से
 +
लामायुरा की दानव मूर्ती ने॔
  
कोई छटपटाहट नहीं<br>
+
मैं तैयार हूँ रंग के लिए
सब्जी बेचने की<br>
+
मक्खन के लिए
कोई जल्दबाजी नहीं<br>
+
और ऊपर से नीचे फैंके जाने के लिए
पैसा कमाने की<br>
+
न बिके सब्जी, "जुले" तो है<br><br>
+
  
उसने फिर कहा<br>
+
ऊपर उठने के लिए जरुरी है
" जुले"<br>
+
गिरने की चोट पाना
इस बार सब बोल उठे <br>
+
पहाड़, दिशाएँ, गोम्फा<br>
+
"जुले..जुले"<br>
+
मेरे होंठों ने कहा "जुले"<br>
+
मेरी जीभ ने कहा "जुले"<br>
+
मेरे गालों पर चिपक गई<br>
+
देवता की मुस्कान<br><br>
+
  
जुले जुले<br><br>
+
10.
 +
तुम?
 +
कब चली आई
 +
थार की गोद छोड़
 +
इन मलंगों के बीच
 +
पहाड़ों के हैंगर पर लटकी
 +
नीली चादर सी
 +
दिपदिपाता है तुम्हारा बदन
 +
नीलम सा
 +
पहाड़ी चुम्बनों से
 +
नील हुआ
 +
ओ लावण्या!
 +
ठीक नहीं इतना लवण कि
 +
छटपटा जाएँ मछलियाँ
 +
दुख जाएँ आँखे
  
अब जब भी मैं होती हूँ उदास<br>
+
मैं पहाड़ी दवात में
अपने आपसे कहती हूँ<br>
+
पेंगांग की स्याही में
जुले..जुले<br><br>
+
कलम डुबा
 +
भेजती हूँ सन्देश
 +
समन्दर को
 +
समन्दर! जाना नहीं रुकना
 +
मेरे लिए रुकना दोस्त!
  
9.<br>
+
उसकी आँखे
मैंने दखल नहीं दी थी<br>
+
नीले पानी में
दाखिल किया मुझे<br>
+
मरी मछली सी डुबडुबाने लगीं
तुम्हारे अपनों ने<br><br>
+
कितना आसान होता है
 +
मौत भूला पाना
 +
उतना ही, जितना कि
 +
किसी जिन्दा को भुलाना
  
उँचे और उँचे <br>
+
कितना ठंडा है पैंगाँग का पानी
चलते जाओ<br>
+
मेरे डूबे पैर कहते हैं
मीठे और मीठे <br>
+
बिल्कुल मौत सा
बनते जाओ<br>
+
शान्ति की चाहत है तो<br>
+
कटते जाओ, कटते जाओ<br>
+
जमीन से, बाजार से,<br>
+
लोगों से, <br><br>
+
  
"पहाड़ की चोटियों पर बने<br>
+
झील इस बार तुम
घौंसले से टंगे गोम्फा<br>
+
इस कदर नमकीन मिली?
खींचते हैं मुझे <br>
+
फिर पोत देते हैं <br>
+
रंग मिला मक्खन<br>
+
मेरे राक्षसी चेहरे पर<br>
+
चीखते चिल्लाते लामा<br>
+
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+
मैं फिर से तैयार हूँ<br>
+
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+
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+
लामायुरा की दानव मूर्ती ने॔<br><br>
+
  
  
मैं तैयार हूँ रंग के लिए<br>
+
11.
मक्खन के लिए<br>
+
कल बस  
और ऊपर से नीचे फैंके जाने के लिए<br><br>
+
तुम और मैं
 
+
गहरी काली चादर के तले
ऊपर उठने के लिए जरुरी है<br>
+
तुम पहाड़ बने, बादल बने
गिरने की चोट पाना<br><br>
+
फिर पंछी बन उड़ गए
 
+
मैं नदी बन तुम्हारी गोद में
 
+
सोती रही
10.<br>
+
तुम थे भी
तुम?<br>
+
नहीं भी
कब चली आई <br>
+
मैं तुम्हारे पेशानी पर चमकी
थार की गोद छोड़<br>
+
बून्द बन
इन मलंगों के बीच<br>
+
फिर उड़ गई
पहाड़ों के हैंगर पर लटकी <br>
+
भाप बन
नीली चादर सी<br>
+
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दिपदिपाता है तुम्हारा बदन<br>
+
नीलम सा<br>
+
पहाड़ी चुम्बनों से<br>
+
नील हुआ<br>
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ओ लावण्या!<br>
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ठीक नहीं इतना लवण कि<br>
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छटपटा जाएँ मछलियाँ<br>
+
दुख जाएँ आँखे<br><br>
+
 
+
मैं पहाड़ी दवात में<br>
+
पेंगांग की स्याही में<br>
+
कलम डुबा<br>
+
भेजती हूँ सन्देश<br>
+
समन्दर को<br>
+
समन्दर! जाना नहीं रुकना<br>
+
मेरे लिए रुकना दोस्त!<br><br>
+
 
+
उसकी आँखे <br>
+
नीले पानी में<br>
+
मरी मछली सी डुबडुबाने लगीं<br>
+
कितना आसान होता है<br>
+
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उतना ही, जितना कि <br>
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+
 
+
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बिल्कुल मौत सा<br><br>
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झील इस बार तुम<br>
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कल बस <br>
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तुम और मैं<br>
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नहीं भी<br>
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बून्द बन<br>
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फिर उड़ गई<br>
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भाप बन<br>
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7/21/2006
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18:03, 29 अगस्त 2013 के समय का अवतरण

1.
सुना तुमने?
पाहुने आए हैं तुम्हारे दरवाजे
और तुम
निसंग, उचाट, निपाट
यूँ ही बैठे रहोगे?
या फिर
तनिक पानी दोगे
देखो मेरे पाँव पड़पड़ा उठे हैं
धूल से

2.
नहीं,
नहीं सुना
या फिर सुन कर
कर दिया अनसुना
उन्होंने॔
"निपट पाहन जो हो
यदि हरी होती एक भी शिरा
बैठे रहते क्यों इस तरह?"
मैंने गुस्से को नहीं रोका
फिर ?
आँधी का अट्टहास
कुछ बून्दें
"लेह में बरसात
वह भी इस मौसम में?"

अचंभित थे लोग
बस मैं नहीं!

3.
समझ नहीं पा रही
इतने सवेरे
किसने जड़ दिए
बेमौसन चुम्बन
तुम्हारे चेहरे पर
कल रात तो तुम
झक थे सफेद रुई की तरह
आज इतने नीले क्यों??

क्यों तुम्हारा चेहरा
दिपदिपा गया है
गोम्फा में बैठे देवता की तरह

तुमने कहाँ दी दावत
मैंने ही डाल दिया डेरा
तुम्हारे घर की दहलीज के भीतर
अवधूतों, जरा चिलम तो बुझाओ

4.
किसे थामे है यह
स्टीयरिंग या बाँसुरी?
कार दौड़ रही है
तुम्हारी छाती पर
गीली धुन सी
यह
तुम्हे पूजता है
पूजता है गोम्फा मे बैठे
सभी देवताओ को
फिर भी पहाड़ों
यह चालक, तुम्हारी सन्तति
धड़ल्ले से चढ़ा आ रहा है
तुम्हारे रोम रहित सीने पर

रोकोगे?

आज की साँझ
कौन पकाएगा खीर
खिलाएगा कौन?
मुस्कराओ नहीं
मैं कोई सुजाता नहीं
तुम चाहे लामा हो
अपने देवता के

5.
उसे पता नहीं
वह भिक्षुक है
पता नहीं उसे कि वह लामा है
फिर भी
लाल चोगे के नीचे से
लात चलाता हुआ
कुंगफुंग की मुद्रा में
अपने साथी से खिलवाड़ करता है
तो वह बस गिलहरी होता है
कभी खरगोश
कभी चीता तो
कभी पेड़ की टहनी से
झाँकता सूखा पत्ता

उस बचपन के कानों में
फुसफुसाते हैं बड़े लोग
लामा हो, लामा हो, लामा हो

घर का अन्तिम बच्चा
गोम्फा की भेंट चढ़ गया

6.
" इसे मून लैण्ड कहते हैं"
नवाँग छेरिंग कहता है
तो फिर चाँद वैसा नहीं जैसा कि
मुझे दिखता है?
उदयपुर की झील में
काँसे की थाली सा तैरता
नारियल के दरख्तों में
उलझा सा
बादलों से झगड़ता सा

तो फिर
ऐसा होगा चाँद?
सूखे भूरे
पहाड़ों से लटके लोथड़ों सा
दरख्त सी खड़ी बाँबियों सा
अनघड़ आकृतियों सा

कैसा भी हो,
कितना करीब आ गया है चाँद
बिल्कुल मेरी एड़ी के नीचे

आज पहली बार लगा
कि मैं भी चाँद हूँ
भूसर लोथड़ों और
बाँबियों से सजी

7.
किस कदर घेरे
बैठे हो अवधूतों
तनिक सरकों
देखो मेरा दम घुट रहा है
बदन नीला हो गया
तुम्हारे उच्छ्वासों ने मुझे
घुमा दिया है घाटी में भुनगे सा
तुम्हारे पेशानी पर बल क्यों?
नीली नसें इतनी उभरी क्यों?
देखा मैं बिखर गई
बरफ बन
तुम्हारे बदन पर
फिर मत कहना कि
इतनी जलन क्यों

जरा सरकों
रुक रही है मेरी साँस
फूँक तो मार दो
मेरे सीने में

8.
"जुले"
वह कहती है
मुस्कुराट का दूसरा नाम होगा जुले
या फिर बेहद कम में सन्तोष का
"जुले"
शलजम , गाजर , सूखी खुबानी के बीच
जुले लाल हो उठा है

कोई छटपटाहट नहीं
सब्जी बेचने की
कोई जल्दबाजी नहीं
पैसा कमाने की
न बिके सब्जी, "जुले" तो है

उसने फिर कहा
"जुले"
इस बार सब बोल उठे
पहाड़, दिशाएँ, गोम्फा
"जुले..जुले"
मेरे होंठों ने कहा "जुले"
मेरी जीभ ने कहा "जुले"
मेरे गालों पर चिपक गई
देवता की मुस्कान

जुले जुले

अब जब भी मैं होती हूँ उदास
अपने आपसे कहती हूँ
जुले..जुले

9.
मैंने दखल नहीं दी थी
दाखिल किया मुझे
तुम्हारे अपनों ने

उँचे और उँचे
चलते जाओ
मीठे और मीठे
बनते जाओ
शान्ति की चाहत है तो
कटते जाओ, कटते जाओ
जमीन से, बाजार से,
लोगों से,

"पहाड़ की चोटियों पर बने
घौंसले से टंगे गोम्फा
खींचते हैं मुझे
फिर पोत देते हैं
रंग मिला मक्खन
मेरे राक्षसी चेहरे पर
चीखते चिल्लाते लामा
फैंक देते हैं घाटियों में
मैं फिर से तैयार हूँ
आदमजात बनने के लिए"
फुसफुसा कर कहा था मुझ से
लामायुरा की दानव मूर्ती ने॔

मैं तैयार हूँ रंग के लिए
मक्खन के लिए
और ऊपर से नीचे फैंके जाने के लिए

ऊपर उठने के लिए जरुरी है
गिरने की चोट पाना

10.
तुम?
कब चली आई
थार की गोद छोड़
इन मलंगों के बीच
पहाड़ों के हैंगर पर लटकी
नीली चादर सी
दिपदिपाता है तुम्हारा बदन
नीलम सा
पहाड़ी चुम्बनों से
नील हुआ
ओ लावण्या!
ठीक नहीं इतना लवण कि
छटपटा जाएँ मछलियाँ
दुख जाएँ आँखे

मैं पहाड़ी दवात में
पेंगांग की स्याही में
कलम डुबा
भेजती हूँ सन्देश
समन्दर को
समन्दर! जाना नहीं रुकना
मेरे लिए रुकना दोस्त!

उसकी आँखे
नीले पानी में
मरी मछली सी डुबडुबाने लगीं
कितना आसान होता है
मौत भूला पाना
उतना ही, जितना कि
किसी जिन्दा को भुलाना

कितना ठंडा है पैंगाँग का पानी
मेरे डूबे पैर कहते हैं
बिल्कुल मौत सा

झील इस बार तुम
इस कदर नमकीन मिली?


11.
कल बस
तुम और मैं
गहरी काली चादर के तले
तुम पहाड़ बने, बादल बने
फिर पंछी बन उड़ गए
मैं नदी बन तुम्हारी गोद में
सोती रही
तुम थे भी
नहीं भी
मैं तुम्हारे पेशानी पर चमकी
बून्द बन
फिर उड़ गई
भाप बन