भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कल सहसा यह सन्देश मिला / भगवतीचरण वर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=भगवतीचरण वर्मा
 
|रचनाकार=भगवतीचरण वर्मा
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
कल सहसा यह सन्देश मिला
 +
सूने-से युग के बाद मुझे
 +
कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर
 +
तुम कर लेती हो याद मुझे।
  
कल सहसा यह सन्देश मिला<br>
+
गिरने की गति में मिलकर
सूने-से युग के बाद मुझे<br>
+
गतिमय होकर गतिहीन हुआ
कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर<br>
+
एकाकीपन से आया था
तुम कर लेती हो याद मुझे ।<br><br>
+
अब सूनेपन में लीन हुआ।
  
गिरने की गति में मिलकर<br>
+
यह ममता का वरदान सुमुखि
गतिमय होकर गतिहीन हुआ<br>
+
है अब केवल अपवाद मुझे
एकाकीपन से आया था<br>
+
मैं तो अपने को भूल रहा,
अब सूनेपन में लीन हुआ ।<br><br>
+
तुम कर लेती हो याद मुझे।
  
यह ममता का वरदान सुमुखि<br>
+
पुलकित सपनों का क्रय करने
है अब केवल अपवाद मुझे<br>
+
मैं आया अपने प्राणों से
मैं तो अपने को भूल रहा,<br>
+
लेकर अपनी कोमलताओं को
तुम कर लेती हो याद मुझे ।<br><br>
+
मैं टकराया पाषाणों से।
  
पुलकित सपनों का क्रय करने<br>
+
मिट-मिटकर मैंने देखा है
मैं आया अपने प्राणों से<br>
+
मिट जानेवाला प्यार यहाँ
लेकर अपनी कोमलताओं को<br>
+
सुकुमार भावना को अपनी
मैं टकराया पाषाणों से ।<br><br>
+
बन जाते देखा भार यहाँ।
  
मिट-मिटकर मैंने देखा है<br>
+
उत्तप्त मरूस्थल बना चुका
मिट जानेवाला प्यार यहाँ<br>
+
विस्मृति का विषम विषाद मुझे
सुकुमार भावना को अपनी<br>
+
किस आशा से छवि की प्रतिमा!
बन जाते देखा भार यहाँ ।<br><br>
+
तुम कर लेती हो याद मुझे?
  
उत्तप्त मरूस्थल बना चुका<br>
+
हँस-हँसकर कब से मसल रहा
विस्मृति का विषम विषाद मुझे<br>
+
हूँ मैं अपने विश्वासों को
किस आशा से छवि की प्रतिमा !<br>
+
पागल बनकर मैं फेंक रहा
तुम कर लेती हो याद मुझे ?<br><br>
+
हूँ कब से उलटे पाँसों को।
  
हँस-हँसकर कब से मसल रहा<br>
+
पशुता से तिल-तिल हार रहा
हूँ मैं अपने विश्वासों को<br>
+
हूँ मानवता का दाँव अरे
पागल बनकर मैं फेंक रहा<br>
+
निर्दय व्यंगों में बदल रहे
हूँ कब से उलटे पाँसों को ।<br><br>
+
मेरे ये पल अनुराग-भरे।
  
पशुता से तिल-तिल हार रहा<br>
+
बन गया एक अस्तित्व अमिट
हूँ मानवता का दाँव अरे<br>
+
मिट जाने का अवसाद मुझे
निर्दय व्यंगों में बदल रहे<br>
+
फिर किस अभिलाषा से रूपसि!
मेरे ये पल अनुराग-भरे ।<br><br>
+
तुम कर लेती हो याद मुझे?
  
बन गया एक अस्तित्व अमिट<br>
+
यह अपना-अपना भाग्य, मिला
मिट जाने का अवसाद मुझे<br>
+
अभिशाप मुझे, वरदान तुम्हें
फिर किस अभिलाषा से रूपसि !<br>
+
जग की लघुता का ज्ञान मुझे,
तुम कर लेती हो याद मुझे ?<br><br>
+
अपनी गुरुता का ज्ञान तुम्हें।
  
यह अपना-अपना भाग्य, मिला<br>
+
जिस विधि ने था संयोग रचा,
अभिशाप मुझे, वरदान तुम्हें<br>
+
उसने ही रचा वियोग प्रिये
जग की लघुता का ज्ञान मुझे,<br>
+
मुझको रोने का रोग मिला,
अपनी गुरुता का ज्ञान तुम्हें ।<br><br>
+
तुमको हँसने का भोग प्रिये।
  
जिस विधि ने था संयोग रचा,<br>
+
सुख की तन्मयता तुम्हें मिली,
उसने ही रचा वियोग प्रिये<br>
+
पीड़ा का मिला प्रमाद मुझे
मुझको रोने का रोग मिला,<br>
+
फिर एक कसक बनकर अब क्यों
तुमको हँसने का भोग प्रिये ।<br><br>
+
तुम कर लेती हो याद मुझे?
 
+
</poem>
सुख की तन्मयता तुम्हें मिली,<br>
+
पीड़ा का मिला प्रमाद मुझे<br>
+
फिर एक कसक बनकर अब क्यों<br>
+
तुम कर लेती हो याद मुझे ?<br><br>
+

10:17, 30 अगस्त 2013 के समय का अवतरण

कल सहसा यह सन्देश मिला
सूने-से युग के बाद मुझे
कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर
तुम कर लेती हो याद मुझे।

गिरने की गति में मिलकर
गतिमय होकर गतिहीन हुआ
एकाकीपन से आया था
अब सूनेपन में लीन हुआ।

यह ममता का वरदान सुमुखि
है अब केवल अपवाद मुझे
मैं तो अपने को भूल रहा,
तुम कर लेती हो याद मुझे।

पुलकित सपनों का क्रय करने
मैं आया अपने प्राणों से
लेकर अपनी कोमलताओं को
मैं टकराया पाषाणों से।

मिट-मिटकर मैंने देखा है
मिट जानेवाला प्यार यहाँ
सुकुमार भावना को अपनी
बन जाते देखा भार यहाँ।

उत्तप्त मरूस्थल बना चुका
विस्मृति का विषम विषाद मुझे
किस आशा से छवि की प्रतिमा!
तुम कर लेती हो याद मुझे?

हँस-हँसकर कब से मसल रहा
हूँ मैं अपने विश्वासों को
पागल बनकर मैं फेंक रहा
हूँ कब से उलटे पाँसों को।

पशुता से तिल-तिल हार रहा
हूँ मानवता का दाँव अरे
निर्दय व्यंगों में बदल रहे
मेरे ये पल अनुराग-भरे।

बन गया एक अस्तित्व अमिट
मिट जाने का अवसाद मुझे
फिर किस अभिलाषा से रूपसि!
तुम कर लेती हो याद मुझे?

यह अपना-अपना भाग्य, मिला
अभिशाप मुझे, वरदान तुम्हें
जग की लघुता का ज्ञान मुझे,
अपनी गुरुता का ज्ञान तुम्हें।

जिस विधि ने था संयोग रचा,
उसने ही रचा वियोग प्रिये
मुझको रोने का रोग मिला,
तुमको हँसने का भोग प्रिये।

सुख की तन्मयता तुम्हें मिली,
पीड़ा का मिला प्रमाद मुझे
फिर एक कसक बनकर अब क्यों
तुम कर लेती हो याद मुझे?