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"संकोच-भार को सह न सका / भगवतीचरण वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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संकोच-भार को सह न सका
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पुलकित प्राणों का कोमल स्वर
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कह गये मौन असफलताओं को
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प्रिय आज काँपते हुए अधर।
  
संकोच-भार को सह न सका<br>
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छिप सकी हृदय की आग कहीं ?
पुलकित प्राणों का कोमल स्वर<br>
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छिप सका प्यार का पागलपन ?
कह गये मौन असफलताओं को<br>
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तुम व्यर्थ लाज की सीमा में
प्रिय आज काँपते हुए अधर ।<br><br>
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हो बाँध रही प्यासा जीवन।
  
छिप सकी हृदय की आग कहीं ?<br>
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तुम करूणा की जयमाल बनो,
छिप सका प्यार का पागलपन ?<br>
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मैं बनूँ विजय का आलिंगन
तुम व्यर्थ लाज की सीमा में<br>
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हम मदमातों की दुनिया में,
हो बाँध रही प्यासा जीवन ।<br><br>
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बस एक प्रेम का हो बन्धन।
  
तुम करूणा की जयमाल बनो,<br>
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आकुल नयनों में छलक पड़ा
मैं बनूँ विजय का आलिंगन<br>
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जिस उत्सुकता का चंचल जल
हम मदमातों की दुनिया में,<br>
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कम्पन बन कर कह गई वही
बस एक प्रेम का हो बन्धन ।<br><br>
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तन्मयता की बेसुध हलचल।
  
आकुल नयनों में छलक पड़ा<br>
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तुम नव-कलिका-सी-सिहर उठीं
जिस उत्सुकता का चंचल जल<br>
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मधु की मादकता को छूकर
कम्पन बन कर कह गई वही<br>
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वह देखो अरुण कपोलों पर
तन्मयता की बेसुध हलचल ।<br><br>
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अनुराग सिहरकर पड़ा बिखर।
  
तुम नव-कलिका-सी-सिहर उठीं<br>
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तुम सुषमा की मुस्कान बनो
मधु की मादकता को छूकर<br>
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अनुभूति बनूँ मैं अति उज्जवल
वह देखो अरुण कपोलों पर<br>
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तुम मुझ में अपनी छवि देखो,
अनुराग सिहरकर पड़ा बिखर ।<br><br>
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मैं तुममें निज साधना अचल।
  
तुम सुषमा की मुस्कान बनो<br>
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पल-भर की इस मधु-बेला को
अनुभूति बनूँ मैं अति उज्जवल<br>
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युग में परिवर्तित तुम कर दो
तुम मुझ में अपनी छवि देखो,<br>
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अपना अक्षय अनुराग सुमुखि,
मैं तुममें निज साधना अचल ।<br><br>
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मेरे प्राणों में तुम भर दो।
  
पल-भर की इस मधु-बेला को<br>
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तुम एक अमर सन्देश बनो,
युग में परिवर्तित तुम कर दो<br>
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मैं मन्त्र-मुग्ध-सा मौन रहूँ
अपना अक्षय अनुराग सुमुखि,<br>
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तुम कौतूहल-सी मुसका दो,
मेरे प्राणों में तुम भर दो ।<br><br>
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जब मैं सुख-दुख की बात कहूँ।
  
तुम एक अमर सन्देश बनो,<br>
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तुम कल्याणी हो, शक्ति बनो
मैं मन्त्र-मुग्ध-सा मौन रहूँ<br>
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तोड़ो भव का भ्रम-जाल यहाँ
तुम कौतूहल-सी मुसका दो,<br>
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बहना है, बस बह चलो, अरे
जब मैं सुख-दुख की बात कहूँ ।<br><br>
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है व्यर्थ पूछना किधर-कहाँ?
  
तुम कल्याणी हो, शक्ति बनो<br>
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थोड़ा साहस, इतना कह दो
तोड़ो भव का भ्रम-जाल यहाँ<br>
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तुम प्रेम-लोक की रानी हो
बहना है, बस बह चलो, अरे<br>
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जीवन के मौन रहस्यों की
है व्यर्थ पूछना किधर-कहाँ?<br><br>
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तुम सुलझी हुई कहानी हो।
  
थोड़ा साहस, इतना कह दो<br>
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तुममें लय होने को उत्सुक
तुम प्रेम-लोक की रानी हो<br>
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अभिलाषा उर में ठहरी है
जीवन के मौन रहस्यों की<br>
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बोलो ना, मेरे गायन की
तुम सुलझी हुई कहानी हो ।<br><br>
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तुममें ही तो स्वर-लहरी है।
  
तुममें लय होने को उत्सुक<br>
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होंठों पर हो मुस्कान तनिक
अभिलाषा उर में ठहरी है<br>
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नयनों में कुछ-कुछ पानी हो
बोलो ना, मेरे गायन की<br>
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फिर धीरे से इतना कह दो
तुममें ही तो स्वर-लहरी है ।<br><br>
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तुम मेरी ही दीवानी हो।
 
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होंठों पर हो मुस्कान तनिक<br>
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नयनों में कुछ-कुछ पानी हो<br>
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फिर धीरे से इतना कह दो<br>
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तुम मेरी ही दीवानी हो ।<br><br>
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10:25, 30 अगस्त 2013 के समय का अवतरण

संकोच-भार को सह न सका
पुलकित प्राणों का कोमल स्वर
कह गये मौन असफलताओं को
प्रिय आज काँपते हुए अधर।

छिप सकी हृदय की आग कहीं ?
छिप सका प्यार का पागलपन ?
तुम व्यर्थ लाज की सीमा में
हो बाँध रही प्यासा जीवन।

तुम करूणा की जयमाल बनो,
मैं बनूँ विजय का आलिंगन
हम मदमातों की दुनिया में,
बस एक प्रेम का हो बन्धन।

आकुल नयनों में छलक पड़ा
जिस उत्सुकता का चंचल जल
कम्पन बन कर कह गई वही
तन्मयता की बेसुध हलचल।

तुम नव-कलिका-सी-सिहर उठीं
मधु की मादकता को छूकर
वह देखो अरुण कपोलों पर
अनुराग सिहरकर पड़ा बिखर।

तुम सुषमा की मुस्कान बनो
अनुभूति बनूँ मैं अति उज्जवल
तुम मुझ में अपनी छवि देखो,
मैं तुममें निज साधना अचल।

पल-भर की इस मधु-बेला को
युग में परिवर्तित तुम कर दो
अपना अक्षय अनुराग सुमुखि,
मेरे प्राणों में तुम भर दो।

तुम एक अमर सन्देश बनो,
मैं मन्त्र-मुग्ध-सा मौन रहूँ
तुम कौतूहल-सी मुसका दो,
जब मैं सुख-दुख की बात कहूँ।

तुम कल्याणी हो, शक्ति बनो
तोड़ो भव का भ्रम-जाल यहाँ
बहना है, बस बह चलो, अरे
है व्यर्थ पूछना किधर-कहाँ?

थोड़ा साहस, इतना कह दो
तुम प्रेम-लोक की रानी हो
जीवन के मौन रहस्यों की
तुम सुलझी हुई कहानी हो।

तुममें लय होने को उत्सुक
अभिलाषा उर में ठहरी है
बोलो ना, मेरे गायन की
तुममें ही तो स्वर-लहरी है।

होंठों पर हो मुस्कान तनिक
नयनों में कुछ-कुछ पानी हो
फिर धीरे से इतना कह दो
तुम मेरी ही दीवानी हो।