भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"क्‍या वो दिन भी दिन हैं / राही मासूम रज़ा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राही मासूम रज़ा }} क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर...)
 
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=राही मासूम रज़ा
 
|रचनाकार=राही मासूम रज़ा
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatGhazal}}
 +
<poem>
 +
क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए
 +
क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए।
  
क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए<br>
+
हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए ।<br><br>
+
जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए।
  
हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं<br>
+
इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए ।<br><br>
+
जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए।।
  
इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन<br>
+
हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए ।।<br><br>
+
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।
  
हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही<br>
 
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।<br><br>
 
 
क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।
 
क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।
 +
</poem>

11:42, 1 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण

क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए
क्‍या वो रातें भी रातें हैं जिनमें नींद ना आए।

हम भी कैसे दीवाने हैं किन लोगों में बैठे हैं
जान पे खेलके जब सच बोलें तब झूठे कहलाए।

इतने शोर में दिल से बातें करना है नामुमकिन
जाने क्‍या बातें करते हैं आपस में हमसाए।।

हम भी हैं बनवास में लेकिन राम नहीं हैं राही
आए अब समझाकर हमको कोई घर ले जाए ।।

क्‍या वो दिन भी दिन हैं जिनमें दिन भर जी घबराए ।।