भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आ उठ चल, बाहर जीवन है / मानोशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('<poem>जीवन विषाद नहीं है, सुख है, है मन का यह भ्रम, जो दुख ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | <poem>जीवन विषाद नहीं है, सुख है, | + | {{KKGlobal}} |
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=मानोशी | ||
+ | |अनुवादक= | ||
+ | |संग्रह= | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatGeet}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | जीवन विषाद नहीं है, सुख है, | ||
है मन का यह भ्रम, जो दुख है, | है मन का यह भ्रम, जो दुख है, | ||
मधुर स्मृति से आलिंगन-बद्ध | मधुर स्मृति से आलिंगन-बद्ध |
08:51, 29 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण
जीवन विषाद नहीं है, सुख है,
है मन का यह भ्रम, जो दुख है,
मधुर स्मृति से आलिंगन-बद्ध
बैठ राह रोता मूरख है|
डर कर काँप रहा यह तन तर,
इक बिजली के कंपन ही से,
करुणा छोड़ स्वयं अपने पर,
आ उठ चल, बाहर जीवन है।
चल पथरीले रस्ते पर से,
धूप कड़ी गुज़रती सर से,
ना डरना तू कठिन प्रहर से,
छाँव लिये आगे तरुवर है।
द्वार-द्वार भटकता पागल
छोटी नाव, डराता सागर,
माँगे नीर, मिले लवण-जल
हाथ मे निज मीठा जल है।
खड़ी निराशा है मुँह बाये,
घेरे तत्पर अवसर पाये
दिखे अन्धेरों के साये, पर
गुफ़ा के अन्तिम द्वार किरण है।
आ उठ चल, बाहर जीवन है।