भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मुख़्तसर ही सही मयस्सर है / साबिर" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साबिर }} {{KKCatGhazal}} <poem> मुख़्तसर ही सही म...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
12:34, 8 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण
मुख़्तसर ही सही मयस्सर है
जो भी कुछ है नहीं से बेहतर है
दिन-दहाड़े गुनाह करता हूँ
मो‘तबर हो न जाऊँ ये डर है
मंच पर कामयाब हो कि न हो
मुझ को किरदार अपना अज़्बर है
सब को पथरा दिया पलक झपके
हम न कहते थे शोबदा-गर है
ऐन मुमकिन है वो पलट आए
मेरा ईमान मोजज़ों पर है
पहले मौसम पे तबसिरा करना
फिर वो कहना जो दिल के अंदर है
सारे मंज़र हसीन लगते हैं
दूरियाँ कम न हों तो बेहतर है
रास्ते बैन कर रहे हैं क्यूँ
क्या मसाफ़त ये इंतिहा पर है
फ़स्ल बोई भी हम ने काटी भी
अब न कहना ज़मीन बंजर है