भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दीठ रो फरक / मदन गोपाल लढ़ा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=म्हारै पांती री चिंतावां / मदन गोपाल लढ़ा  
 
|संग्रह=म्हारै पांती री चिंतावां / मदन गोपाल लढ़ा  
 
}}
 
}}
[[Category:मूल राजस्थानी भाषा]]
+
{{KKCatRajasthaniRachna}}
 
{{KKCatKavita‎}}
 
{{KKCatKavita‎}}
 
<Poem>
 
<Poem>
पंक्ति 30: पंक्ति 30:
 
बिरछ री डाळयां ओटै
 
बिरछ री डाळयां ओटै
 
आप काटो
 
आप काटो
टाबर रै जींवता सपनां नै !
+
टाबर रै जींवता सपनां नै!
 
+
 
</Poem>
 
</Poem>

23:31, 16 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण

एक छोटै टाबर री
आंख्यां मे हुवै
एक जींवतो सपनो।
सपनैं में
एक लीलोछम रूंख
उण माथै चीं-चीं करती
रंग-बिरंगी चिड़कल्यां
मीठा गीत उगेरती कोयल
नाचतो-बोलतो मोर।
थारी चतर आंख्यां में ई
हाल हर्यो है एक सपनो
जिण में आप जोखो
लकड़ी रै मूंघा भाव मुजब
बिरछ रो वजन
अर आपरै हाथां नाचै
एक कुवाड़ो।

म्हनैं पड़तख लखावै
टाबर रै सपनै अर
आपरै कुवाडै़ में
जुगां जूनो बैर है
बिरछ री डाळयां ओटै
आप काटो
टाबर रै जींवता सपनां नै!