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18:20, 13 जुलाई 2008 के समय का अवतरण
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कोई तौ दिन हाँड़ लै गलिएँ !
मालिक मेरे ने बाग लुआया,
खूब खिलीं कलिएँ !
कोई तौ दिन हाँड़ लै गलिएँ !
मौत-मलिन फिरै बाग मैं,
हात लई डलिए !
कोई तौ दिन हाँड़ लै गलिएँ !
कचे पाकाँ की सैर नै जानी,
तोड़ रई कलिएँ !
कोई तौ दिन हाँड़ लै गलिएँ
भावार्थ
--'जीवन की इन गलियों में कुछ दिन और बिता ले, रे जीव ! मालिक ने यह बाग लगाया है, ख़ूब कलियाँ
खिली हैं इस बाग में । कुछ और दिन जी ले । अपने हाथ में टोकरी लिए मौत रूपी मालिन इस बाग में घूम रही
है । जीवन, बस, कुछ ही दिन और शेष है । वह मौत रूपी मालिन कच्चे और पक्के में कोई भेद नहीं करती,
खिली और अधखिली कली का अन्तर उसे पता नहीं है,वह तो वे सब कलियाँ तोड़ लेती है, जो उसके हाथ लगती
हैं । कुछ और दिन घूम ले तू इन गलियों में, ओ जीव !'