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"कफन फाड़कर मुर्दा बोला / श्यामनन्दन किशोर" के अवतरणों में अंतर

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चमड़ी मिली खुदा के घर से
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मुखड़ा सटक गया घुटनों में
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चमड़ी मिली खुदा के घर से<br>
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मिली आग लेकिन भाग्य-सा
दमड़ी नहीं समाज दे सका<br>
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जलने को जुट पाया इंधन
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दाँतों के मिस प्रकट हो गया
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मेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन
  
मुखड़ा सटक गया घुटनों में<br>
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किन्तु अचानक लगा कि यह,
अटक कंठ में प्राण रह गये<br>
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संसार बड़ा दिलदार हो गया
सिकुड़ गया तन जैसे मन में<br>
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जीने पर दुत्कार मिली थी
सिकुड़े सब अरमान रह गये<br><br>
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मरने पर उपकार हो गया
  
मिली आग लेकिन न भाग्य-सा<br>
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श्वेत माँग-सी विधवा की,
जलने को जुट पाया इंधन<br>
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चदरी कोई इन्सान दे गया
दाँतों के मिस प्रकट हो गया<br>
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और दूसरा बिन माँगे ही
मेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन<br><br>
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ढेर लकड़ियाँ दान दे गया
  
किन्तु अचानक लगा कि यह,<br>
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वस्त्र मिल गया, ठंड मिट गयी,
संसार बड़ा दिलदार हो गया<br>
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धन्य हुआ मानव का चोला
जीने पर दुत्कार मिली थी<br>
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कफन फाड़कर मुर्दा बोला।
मरने पर उपकार हो गया<br><br>
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श्वेत माँग-सी विधवा की,<br>
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कहते मरे रहीम न लेकिन,
चदरी कोई इन्सान दे गया<br>
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पेट-पीठ मिल एक हो सके
और दूसरा बिन माँगे ही<br>
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नहीं अश्रु से आज तलक हम,
ढेर लकड़ियाँ दान दे गया<br><br>
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अमिट क्षुधा का दाग धो सके
  
वस्त्र मिल गया, ठंड मिट गयी,<br>
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खाने को कुछ मिला नहीं सो,
धन्य हुआ मानव का चोला<br>
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खाने को ग़म मिले हज़ारों
कफन फाड़कर मुर्दा बोला ।<br><br>
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श्री-सम्पन्न नगर ग्रामों में
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भूखे-बेदम मिले हज़ारों
  
कहते मरे रहीम न लेकिन,<br>
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दाने-दाने पर पाने वाले
पेट-पीठ मिल एक हो सके<br>
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का सुनता नाम लिखा है
नहीं अश्रु से आज तलक हम,<br>
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किन्तु देखता हूँ इन पर,
अमिट क्षुधा का दाग धो सके<br><br>
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ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है
  
खाने को कुछ मिला नहीं सो,<br>
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दास मलूका से पूछो क्या,
खाने को ग़म मिले हज़ारों<br>
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'सबके दाता राम' लिखा है?
श्री-सम्पन्न नगर ग्रामों में<br>
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या कि गरीबों की खातिर,
भूखे-बेदम मिले हज़ारों<br><br>
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भूखों मरना अंजाम लिखा है?
  
दाने-दाने पर पाने वाले<br>
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किन्तु अचानक लगा कि यह,
का सुनता नाम लिखा है<br>
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संसार बड़ा दिलदार हो गया
किन्तु देखता हूँ इन पर,<br>
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जीने पर दुत्कार मिली थी
ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है<br><br>
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मरने पर उपकार हो गया।
  
दास मलूका से पूछो क्या,<br>
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जुटा-जुटा कर रेजगारियाँ,
'सबके दाता राम' लिखा है?<br>
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भोज मनाने बन्धु चल पड़े
या कि गरीबों की खातिर,<br>
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जहाँ न कल थी बूँद दीखती,
भूखों मरना अंजाम लिखा है?<br><br>
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वहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े
  
किन्तु अचानक लगा कि यह,<br>
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निर्धन के घर हाथ सुखाते,
संसार बड़ा दिलदार हो गया<br>
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नहीं किसी का अन्तर डोला
जीने पर दुत्कार मिली थी<br>
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कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला।
मरने पर उपकार हो गया ।<br><br>
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जुटा-जुटा कर रेजगारियाँ,<br>
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घरवालों से, आस-पास से,
भोज मनाने बन्धु चल पड़े<br>
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मैंने केवल दो कण माँगा
जहाँ न कल थी बूँद दीखती,<br>
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किन्तु मिला कुछ नहीं और
वहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े<br><br>
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मैं बे-पानी ही मरा अभागा
  
निर्धन के घर हाथ सुखाते,<br>
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जीते-जी तो नल के जल से,
नहीं किसी का अन्तर डोला<br>
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भी अभिषेक किया न किसी ने
कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला ।<br><br>
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रहा अपेक्षित, सदा निरादृत
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कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने
  
घरवालों से, आस-पास से,<br>
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बाप तरसता रहा कि बेटा,
मैंने केवल दो कण माँगा<br>
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श्रद्धा से दो घूँट पिला दे
किन्तु मिला कुछ नहीं और<br>
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स्नेह-लता जो सूख रही है
मैं बे-पानी ही मरा अभागा<br><br>
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ज़रा प्यार से उसे जिला दे
  
जीते-जी तो नल के जल से,<br>
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कहाँ श्रवण? युग के दशरथ ने,
भी अभिषेक किया न किसी ने<br>
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एक-एक को मार गिराया
रहा अपेक्षित, सदा निरादृत<br>
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मन-मृग भोला रहा भटकता,
कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने<br><br>
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निकली सब कुछ लू की माया
  
बाप तरसता रहा कि बेटा,<br>
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किन्तु अचानक लगा कि यह,
श्रद्धा से दो घूँट पिला दे<br>
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घर-बार बड़ा दिलदार हो गया
स्नेह-लता जो सूख रही है<br>
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जीने पर दुत्कार मिली थी,
ज़रा प्यार से उसे जिला दे<br><br>
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मरने पर उपकार हो गया
  
कहाँ श्रवण? युग के दशरथ ने,<br>
+
आश्चर्य वे बेटे देते,
एक-एक को मार गिराया<br>
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पूर्व-पुरूष को नियमित तर्पण
मन-मृग भोला रहा भटकता,<br>
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नमक-तेल रोटी क्या देना,
निकली सब कुछ लू की माया<br><br>
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कर न सके जो आत्म-समर्पण!
  
किन्तु अचानक लगा कि यह,<br>
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जाऊँ कहाँ, न जगह नरक में,
घर-बार बड़ा दिलदार हो गया<br>
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और स्वर्ग के द्वार न खोला!
जीने पर दुत्कार मिली थी,<br>
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कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला।
मरने पर उपकार हो गया<br><br>
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आश्चर्य वे बेटे देते,<br>
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पूर्व-पुरूष को नियमित तर्पण<br>
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नमक-तेल रोटी क्या देना,<br>
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कर न सके जो आत्म-समर्पण !<br><br>
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जाऊँ कहाँ, न जगह नरक में,<br>
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और स्वर्ग के द्वार न खोला !<br>
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कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला ।<br><br>
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14:13, 23 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण

चमड़ी मिली खुदा के घर से
दमड़ी नहीं समाज दे सका
गजभर भी न वसन ढँकने को
निर्दय उभरी लाज दे सका

मुखड़ा सटक गया घुटनों में
अटक कंठ में प्राण रह गये
सिकुड़ गया तन जैसे मन में
सिकुड़े सब अरमान रह गये

मिली आग लेकिन न भाग्य-सा
जलने को जुट पाया इंधन
दाँतों के मिस प्रकट हो गया
मेरा कठिन शिशिर का क्रन्दन

किन्तु अचानक लगा कि यह,
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया

श्वेत माँग-सी विधवा की,
चदरी कोई इन्सान दे गया
और दूसरा बिन माँगे ही
ढेर लकड़ियाँ दान दे गया

वस्त्र मिल गया, ठंड मिट गयी,
धन्य हुआ मानव का चोला
कफन फाड़कर मुर्दा बोला।

कहते मरे रहीम न लेकिन,
पेट-पीठ मिल एक हो सके
नहीं अश्रु से आज तलक हम,
अमिट क्षुधा का दाग धो सके

खाने को कुछ मिला नहीं सो,
खाने को ग़म मिले हज़ारों
श्री-सम्पन्न नगर ग्रामों में
भूखे-बेदम मिले हज़ारों

दाने-दाने पर पाने वाले
का सुनता नाम लिखा है
किन्तु देखता हूँ इन पर,
ऊँचा से ऊँचा दाम लिखा है

दास मलूका से पूछो क्या,
'सबके दाता राम' लिखा है?
या कि गरीबों की खातिर,
भूखों मरना अंजाम लिखा है?

किन्तु अचानक लगा कि यह,
संसार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी
मरने पर उपकार हो गया।

जुटा-जुटा कर रेजगारियाँ,
भोज मनाने बन्धु चल पड़े
जहाँ न कल थी बूँद दीखती,
वहाँ उमड़ते सिन्धु चल पड़े

निर्धन के घर हाथ सुखाते,
नहीं किसी का अन्तर डोला
कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला।

घरवालों से, आस-पास से,
मैंने केवल दो कण माँगा
किन्तु मिला कुछ नहीं और
मैं बे-पानी ही मरा अभागा

जीते-जी तो नल के जल से,
भी अभिषेक किया न किसी ने
रहा अपेक्षित, सदा निरादृत
कुछ भी ध्यान दिया न किसी ने

बाप तरसता रहा कि बेटा,
श्रद्धा से दो घूँट पिला दे
स्नेह-लता जो सूख रही है
ज़रा प्यार से उसे जिला दे

कहाँ श्रवण? युग के दशरथ ने,
एक-एक को मार गिराया
मन-मृग भोला रहा भटकता,
निकली सब कुछ लू की माया

किन्तु अचानक लगा कि यह,
घर-बार बड़ा दिलदार हो गया
जीने पर दुत्कार मिली थी,
मरने पर उपकार हो गया

आश्चर्य वे बेटे देते,
पूर्व-पुरूष को नियमित तर्पण
नमक-तेल रोटी क्या देना,
कर न सके जो आत्म-समर्पण!

जाऊँ कहाँ, न जगह नरक में,
और स्वर्ग के द्वार न खोला!
कफ़न फाड़कर मुर्दा बोला।