भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"प्रिय क्या वह दे पाओगे तुम / मानोशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('<poem>माँगती हूँ प्रिय मैं जो कुछ क्या वह दे पाओगे तुम? ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | <poem>माँगती हूँ प्रिय मैं जो कुछ | + | {{KKGlobal}} |
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=मानोशी | ||
+ | |अनुवादक= | ||
+ | |संग्रह= | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatGeet}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | माँगती हूँ प्रिय मैं जो कुछ | ||
क्या वह दे पाओगे तुम? | क्या वह दे पाओगे तुम? | ||
मौन का नीरव प्रत्युत्तर, | मौन का नीरव प्रत्युत्तर, |
10:26, 31 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण
माँगती हूँ प्रिय मैं जो कुछ
क्या वह दे पाओगे तुम?
मौन का नीरव प्रत्युत्तर,
अनछुये का भी अहसास
बड़ी देर तक चुप्पी को तुम
बाँध रखोगे अपने पास,
क्या स्वयं को ऐसी सीमा
में प्रिय, रख पाओगे तुम?
माँगती हूँ प्रिय मैं...
तुम्हारे इक छोटे से दु:ख
से जो मेरा मन भर आये,
ढुलक पड़े आँखों से मोती
सीमायें तोड़े बह जाये,
थोड़ी देर उँगली पर अपने
मेरे अश्रु को रख लेना
बस थोड़े ही क्षण का आश्रय
क्या प्रिय दे पाओगे तुम?
माँगती हूँ प्रिय मैं ..
कभी तुम्हारी आँखों में मैं
सपना बन कर न रह पाऊँ
बाहर के उस कोलाहल में
मैं धीरे से यदि खो जाऊँ
कभी किसी छोटी सी इच्छा
के पीछे जा कर छुप जाऊँ,
ऐसे में बिन आहट के क्या
समय लाँघ आओगे तुम?
माँगती हूँ प्रिय मैं ..