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"मेगलोमैनिया / प्रदीप जिलवाने" के अवतरणों में अंतर

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मैं अपने मन की सुनता तो तुम्हें अब तक चूम चुका होता
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पटरियों पर जिस बेहरमी से गुजरती है रेल
यानी किन्हीं पके हुए शब्दों में बता सकता कि
+
या सन्नाटे को जिस क्रूरता से तोड़ता है सायरन
तुम खारी हो या मीठी हो
+
तुमने भी तो धरती को दिये हैं दृश्य कुछ ऐसे ही
और यह भी कि
+
बतौर उपहार
तुम्हारी देह में जो खिलते हैं, उन फूलों को
+
किन पहाड़ों से रंगत हासिल है
+
  
मैं अपने मन की सुनता तो अपने समस्त खालीपन को
+
बढ़ाया है कब्रस्तानों की सरहदों को और
तुम्हारे हर खालीपन में उड़ेलकर भर चुका होता
+
उनकी तादात को भी
यानी हमारा खालीपन मिलकर भरे होने का भ्रम देता
+
और तुम्हारी इन हुनरमंद आँखों में, जो तिलिस्म रचती हैं
+
तेल की तरह तैर रहा होता ऊपर-ऊपर
+
  
मैं अपने मन की सुनता तो तुम नींद से बाहर भी
+
क्या एक जूता नाकाफी नहीं होता इसके लिए
रच रही होती मेरे होने, न होने को
+
भले ही वह आत्मा को उधेड़ जाए
यानी नींद में मुझे अपना बिस्तर नहीं काटता
+
और जो कभी कँपकँपाती ठंड से मेरी हथेली
+
किसी अलाव की तरह मौजूद होती तुम
+
  
लेकिन मैं अपने मन की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता
+
हम समझते हैं
यानी वह मुझसे थोड़ा साहस माँगता है
+
तुम्हारी महानताबोध के रहस्य
और मेरे पास बहाने इतने हैं,
+
और यह भी समझते हैं कि
जितना दुनिया में कचरा
+
हमें समझना नहीं चाहिए
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और यह भी समझते हैं कि
 +
हमें समझने की आवश्यकता नहीं है
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और यह भी समझते हैं कि
 +
हम समझकर आखिर कर भी लेंगे क्या ?
 +
 
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मगर यह तो हमारी समझ है
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तुम इसे अपनी समझ क्यों समझते हो ?
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(महानताबोध के भ्रांतिपूर्ण विश्वास की स्थिति)
 
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17:33, 16 दिसम्बर 2013 के समय का अवतरण

पटरियों पर जिस बेहरमी से गुजरती है रेल
या सन्नाटे को जिस क्रूरता से तोड़ता है सायरन
तुमने भी तो धरती को दिये हैं दृश्य कुछ ऐसे ही
बतौर उपहार

बढ़ाया है कब्रस्तानों की सरहदों को और
उनकी तादात को भी

क्या एक जूता नाकाफी नहीं होता इसके लिए
भले ही वह आत्मा को उधेड़ जाए

हम समझते हैं
तुम्हारी महानताबोध के रहस्य
और यह भी समझते हैं कि
हमें समझना नहीं चाहिए
और यह भी समझते हैं कि
हमें समझने की आवश्यकता नहीं है
और यह भी समझते हैं कि
हम समझकर आखिर कर भी लेंगे क्या ?

मगर यह तो हमारी समझ है
तुम इसे अपनी समझ क्यों समझते हो ?

(महानताबोध के भ्रांतिपूर्ण विश्वास की स्थिति)