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"जी बहलता ही नहीं साँस की झंकारों से / 'मुज़फ्फ़र' वारसी" के अवतरणों में अंतर
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12:00, 13 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
जी बहलता ही नहीं साँस की झंकारों से,
फोड़ लूँ सर न कहीं जिस्म की दीवारों से।
अपने रिस्ते हुए ज़ख्मों पे छिड़क लेता हूँ,
राख झड़ती है जो एहसास के अंगारों से।
गीत गाऊं तो लपक जाते हैं शोले दिल में,
साज़ छेड़ूँ तो निकलता है धुंआ तारों से।
यूँ तो करते हैं सभी इश्क की रस्में पूरी,
दूध की नहर निकाले कोई कुह्सारों से।
जिंदा लाशें भी दुकानों में सजी हैं शायद,
बूए-खूं आती है खुलते हुए बाज़ारों से।
क्या मेरे अक्स में छुप जायेंगे उनके चहरे,
इतना पूछे कोई इन आइना बरदारों से।
प्यार हर चन्द छलकता है उन आंखों से मगर,
ज़ख्म भरते हैं मुज़फ़्फ़र कहीं तलवारों से।