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"वे और हम / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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10:38, 18 मार्च 2014 का अवतरण

 चाहते हैं यह तरैया तोड़ लें।

बेतरह मुँह की मगर हैं खा रहे।

हैं उचक कर हम सरग छूने चले।

पर रसातल को चले हैं जा रहे।

क्यों सुझाये भी नहीं है सूझता।

बीज हैं बरबादियों के बो गये।

क्यों ऍंधोरा आँख पर है छा गया।

किस लिए हम लोग अंधो हो गये।

एक है जाति के लिए जीता।

दूसरा जाति लग नहीं लगता।

एक है हो रहा सजग दिन दिन।

दूसरा जाग कर नहीं जगता।

हैं लटू हम यूनिटी पर हो रहे।

और वह लट बेतरह है पिट रही।

सुधा गँवा सारी हमारी जाति अब।

है हमारे ही मिटाये मिट रही।

जाति जीतें सुन उमग हैं वे रहे।

जाति - दुखड़े देख हम ऊबे नहीं।

आज दिन सूबे चला हैं वे रहे।

हैं हमारे पास मनसूबे नहीं।

जाति अपनी सँभालते हैं वे।

हम नहीं हैं सँभाल सकते घर।

क्या चले साथ दौड़ने उन के।

जो कि हैं उड़ रहे लगा कर पर।

क्यों न मुँह के बल गिरें खा ठोकरें।

छा ऍंधोरा है गया आँखों तले।

हो न पाये पाँव पर अपने खड़े।

साथ देने चालवालों का चले।

लुट रहा है घर, सगे हैं पिट रहे।

खोलते मुँह बेतरह हैं डर रहे।

मौत के मुँह में चले हैं जा रहे।

हैं मगर हम दूसरों पर मर रहे।

दौड़ उन की है बिराने देस तक।

घूम फिर जब हम रहे तब घर रहे।

हम छलाँगें मार हैं पाते नहीं।

वह छलाँगें हैं छगूनी भर रहे।

वह कहीं हो पर गले का हार है।

इस तरह वे जाति-रंग में हैं रँगे।

रंगतें इतनी हमारी हैं बुरी।

हैं सगे भी बन नहीं सकते सगे।

है पसीना जाति का गिरता जहाँ।

वे वहाँ अपना गिराते हैं लहू।

जाति - लोहू चूस लेने के लिए।

कब नहीं हम जिन्द बनते हूबहू।

जाति-दुख से वे दुखी हैं हो रहे।

क्यों न वह हो दूर देसों में बसी।

देख कर भी देख हम पाते नहीं।

जा रही है जाति दलदल में धाँसी।

बावलों जैसा बना उन को दिया।

दूर से आ जाति-दुख के नाम ने।

आँख में उतरा नहीं मेरे लहू।

जाति का होता लहू है सामने।

जाति को ऊँचा उठाने के लिए।

बाग अपनी कब न वे खींचे रहे।

नीच बन आँखें बहुत नीची किये।

हम गिराते जाति को नीचे रहे।

अठकपालीपन दिखा हैं वे रहे।

है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।

वे महल अपने खड़े हैं कर रहे।

हम रहे हैं फूँक अपनी झोंपड़ी।

हों भले ही वे विदेसों में बसे।

प्यार में हैं जाति के पूरे सने।

बात अपनी बेकसी की क्या कहें।

देस में भी हम विदेसी हैं बने।

धाक अपनी बाँधा हैं जग में रहे।

एक झंडे के तले वे हो खड़े।

फूट है घर में हमारे पड़ रही।

हैं लुढ़कते जा रहे घी के घड़े।

धार्म्म पर हो रहे निछावर हैं।

आज वे बोल बोल कर हुर्रे।

हम अधूरे बुरे धुरे पकड़े।

धार्म्म के हैं उड़ा रहे धुर्रे।

क्यों न हों बहु देस में पै+ले हुए।

हैं मगर वे एक बंधान में बँधो।

साधा रहते देस में हम से नहीं।

एकता के मंत्रा साधो से सधो।

दूसरों की जड़ जमाने के लिए।

क्यों बहक कर आप अपनी जड़ खनें।

हम नहीं कहते कि लोहा लोग लें।

पर न चुम्बक के लिए लोहा बनें।