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"बूते की बात / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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12:16, 18 मार्च 2014 का अवतरण

 चाहिए आँखें खुली रखना सदा।

दुख सकेंगे टल नहीं आँखें ढके।

सूख जाते हैं बिपद को देख जब।

किस तरह से सूख तब आँसू सके।

जाँयगे पेच पाच पड़ ढीले।

छेद देगा वु+ढंग बरछी ले।

खोज कर के नये नये हीले।

आँख से आँख लड़ भले ही ले।

देख कर के ही किसी ने क्या किया।

साँसतें सह जातियाँ कितनी मुईं।

तब हुआ क्या बाहरी आँखें बचे।

जब कि आँखें भीतरी अंधी हुईं।

हो बुरा उन कचाइयों का जो।

पत उतारे बिना नहीं मुड़तीं।

जब हवा आप हो गये हम तो।

क्यों न मुँह पर हवाइयाँ उड़तीं।

आ रही हैं जम्हाइयाँ यों क्यों।

काम क्यों बीर की तरह न करें।

हैं उबरते अगर उबर लेवें।

साँस हम ऊब ऊब कर न भरें।

और बातें भूल दें तो भूल दें।

चोट जी की किस तरह है भूलती।

हैं बरसते फूल साँसत में नहीं।

फिर किसी की साँस क्यों है फूलती।

मर मिटें पर काम से मोड़ें न मुँह।

आ बने जी पर मगर सच्ची कहें।

साँसतें सह छोड़ दें साहस नहीं।

साँस रहते तक उबरते हम रहें।

हो भला जिस से वही जी से करें।

पीटते हैं हम पुरानी लीक क्या।

साँस क्यों लें जाति-हित करते चलें।

साँस आई या न आई ठीक क्या।

लोक-हित के लिए बढ़े जब तो।

पाँव पीछे कभी न टल जावे।

हम भली राह से निकल न भगें।

क्यों नहीं साँस ही निकल जावे।

सब तरह से न जाँय जुट जब तक।

जीत तब तक न हाथ आती है।

आस वै+से न टूट जाती तब।

साँस जब टूट टूट जाती है।

खुल कहें और बार बार कहें।

बात वाजिब सदा कही जावे।

बन्द तब तक न मुँह करें अपना।

साँस जब तक न बन्द हो जावे।

जब निकल ऐंठ ही गई सारी।

तब भला मूँछ किस लिए ऐंठें।

बैठती आन बान से तो क्यों।

बात बैठी अगर चपत बैठे।

बाँह के बल को समझ को बूझ को।

दूसरों ने तो बँटाया है नहीं।

धान किसी का देख काटें होठ क्यों।

हाथ तो हम ने कटाया है नहीं।

कौड़ियों पर किस लिए हम दाँत दें।

है हमारा भाग तो फूटा नहीं।

क्या हुआ जो वु+छ हमें टोटा हुआ।

है हमारा हाथ तो टूटा नहीं।

जो सदा हैं बखेरते काँटे।

दे सके वे न फूल के दोने।

क्यों भला काम लें न ढाढ़स से।

क्यों लगें ढाढ़ मार कर रोने।

हौसलों के बने रहें पुतले।

हार हिम्मत कभी न हम हारें।

काम मरदानगी दिखा साधों।

मार मैदान लें, न मन मारें।

भेद दिल का उन्हें नहीं मिलता।

हैं नहीं जो टटोल दिल पाते।

पेट की बात जानना है तो।

पेट में पैठ क्यों नहीं जाते।