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"कोर कसर / हरिऔध" के अवतरणों में अंतर

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13:13, 18 मार्च 2014 का अवतरण

 कोयलों पर हम लगाते हैं मुहर।

पर मुहर लुट जा रही है हर घड़ी।

मिट गये पर ऐंठ है अब भी बनी।

है अजब औंधी हमारी खोपड़ी।

है कहीं रोक थाम का पचड़ा।

है कहीं काट छाँट का ऊधाम।

अब इसे देख हम सकें वै+से।

हो गया देख देख नाकों दम।

बात हो काम की बला से हो।

हैं बड़े बेसुधो कहाँ ऐसे।

कान ही जब कि ले गया कौआ।

तक उसे कान कर सवें+ वै+से।

देखता हूँ कि जाति का जौहर।

है बहा ले चला समय सोता।

लोग होंगे खड़े कमर कस क्या।

कान भी तो खड़ा नहीं होता।

बार सौ सौ सुना सुना ऊबे।

जाति दुखड़ा सुना नहीं जाता।

थक गये काढ़ काढ़ने वाले।

कान का मैल कढ़ नहीं पाता।

तब भला सूझता हमें वै+से।

आँख में जब कि चुभ गई सूई।

तब सुनेंगे कही किसी की क्यों।

कान में जब भरी रही रूई।

तब अगर वह उठा उठा तो क्या।

यह भला था उमेठना सहता।

जाति की लान तान सुनने को।

कान जब है उठा नहीं रहता।

बात सुन बदहवास लोगों की।

क्यों भला बदहवास हम होवें।

दौड़ पीछे पड़ें न कौवे के।

कान अपना न किस लिए टोवें।

जाति के लाल जो न लाल बने।

औ लिये पाल लाल औ मुनिये।

तो खुलेगा न भाग खोले भी।

बात यह कान खोल कर सुनिये।

दौड़ थी दूर की बहुत लम्बी।

हम निराली छलाँग भर न सके।

नाम के तो रहे बहुत भूखे।

काम की बात कान कर न सके।

वह बचन बात से कहीं तीखा।

बेधाता है बिना बिधो ही जो।

छिद उठे जो उसे नहीं सुन कर।

कान में छेद ही नहीं है तो।

जब कि जीवट गई रसातल को।

आप ही सोचिये रहा तब क्या।

जब खुले आम कह नहीं सकते।

वु+छ दबी जीभ से कहा तब क्या।

क्यों रहेगी जाति जीती जागती।

जब घड़ी है मेल की ही टल रही।

ठीक नाड़ी है न चलती बूझ की।

सूझ की ही साँस जब है चल रही।

जान ही जब नहीं किसी में है।

तब भला मान क्यों रहे मन में।

किस तरह साँस ले भला कोई।

साँस ही जब रही नहीं तन में।

जाति के हित के लिए कस कर कमर।

भूल कोई किस लिए जाता रहा।

मुँह दिखायेगा भला तब किस तरह।

साँस तक भी जो नहीं नाता रहा।

बैर जैसे बड़े लड़ाके को।

प्रीति वै+से पछाड़ तब पाती।

पाँव अनबन उखाड़ देने में।

साँस जब थी उखड़ उखड़ जाती।

जाय जुआ बुरा उतर जिससे।

जो न करते रहे वही धांधो।

तो हमें बैल ही बनाते हैं।

बैल वै+से उठे उठे कंधो।

वह सुधारता तो सुधारता किस तरह।

देश की सुधा ही नहीं जब ली गई।

जातिहित की बात जब वै+से सुनें।

कान में जब डाल उँगली दी गई।

जो हथेली पर लिये ही सिर फिरे।

टालने को जाति के सिर की बला।

देख उन पर दाँत हम को पीसते।

कौन दाँतों में न उँगली दे चला।

तब नहीं वै+से हमारी गत बने।

जब कि गत हम आप बनवाते रहे।

पत रहे तो किस तरह से पत रहे।

जब चपत हर बात में खाते रहे।

साँसतें तब क्यों नहीं सहनी पड़ें।

जब उन्हें चुपचाप हम ने हैं सहे।

हाथ वै+से तब न बाँधो जाँयगे।

जब खड़े हम हाथ बाँधो ही रहे।

तब न मनमानियाँ सहेंगे क्यों।

हाथ में जब कि मन मरे के हैं।

तब न बेकार जाँयगे बन क्यों।

जब बिके हाथ दूसरे के हैं।

हो सके दुख-सवाल हल वै+से।

है अगर छूटता न छल मेरा।

देख कर जाति को दहल जाते।

कब कलेजा गया दहल मेरा।

रंग उड़ जाय क्यों न सुख-मुख का।

क्यों फरेरा उड़े न दुख तेरा।

बेतरह जाति जी उड़ा देखे।

जो कलेजा उड़ा नहीं मेरा।

तब दुखी-जाति-दुख टले वै+से।

जब न दुख देख झोंक से झपटे।

जान बेजान में पड़े वै+से।

जब दिलोजन से नहीं लपटे।

तोड़ लाते उचक तरैया को।

औ घड़े में समुद्र को भरते।

कौन सा काम कर नहीं पाते।

हम दिलोजान से अगर करते।

देस को देख कर फला फूला।

कब खिला फूल की तरह मुखड़ा।

जाति को कब हरा भरा पाकर।

दिल हमारा उमड़ उमड़ उमड़ा।

जान पर खेल जो नहीं जाते।

किस तरह नोंक झोंक तो निपटे।

छूटती जाति-जान तो वै+से।

लोग जी जान से न जो लिपटे।

किस तरह कामयाब तो बनते।

किस तरह हों निहाल, भाग जगे।

लाग के साथ काम करने में।

लोग जी जान से अगर न लगे।

साधाते साधाते गये थक हम।

जातिहित साधाना मगर न सधी।

बाँधाते बाँधाते जनम बीता।

देसहित के लिए कमर न बँधी।

क्यों खटकते हमें बुरे काँटे।

क्यों लगे चाट गाँठ का खोते।

सब बुरी हाट ठाट बाटों से।

पाँव मेरे अगर हटे होते।

देख ऊँचे समाज को चढ़ते।

हैं हमीें आँख मीचने वाले।

पड़ बुरी खींचतान पचड़ों में।

हैं हमीें पाँव खींचने वाले।

तो पड़े क्यों पहाड़ सिर पर गिर।

नँह अगर दुख रहे सुखी के हों।

किस लिए तो हमें न, दुख भी हो।

पाँव दुखते अगर दुखी के हों।

हैं गये तन बिन बहुत, सब छिन गया।

लोग काँटे हैं घरों में बो रहे।

है मुसीबत का नगारा बज रहा।

पाँव पर रख पाँव हम हैं सो रहे।

भर गया पोर पोर में औगुन।

नाम हम में न रह गया गुन का।

जो गला चाँप चाँप देते हैं।

पाँव हम चाँप हैं रहे उन का।

कर सके देस जाति का न भला।

चल भले भाव के भले रथ में।

तज धारम के धुरे अधार्मीं बन।

पाँव है धार रहे बुरे पथ में।